गुरुवार, जुलाई 22, 2021

साड़ी की प्लेट

साड़ी की प्लेट
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हाँथ की लकीरों को
जब से पढ़वाकर लौटी है
काले बादलों को भेदकर
उड़ने लगी है
कल्पनाओं के 
सातवें 
आसमान में 
उसे लगने लगा है कि
माथे पर उभरी
सलवटों पर
जब वह  
उंगलियों से छुएगा 
सलवटें सिकुड़कर
जमीन पर गिर जाएंगी
 
वह अक्सर 
अपने भीतर उभरी छवि पर
फेरने लगी उंगलियां
ठीक वैसे ही
जैसे कल्पनाओं में
उसने फेरी थी
माथे पर

सलवटें सुलझने लगी  
और जिंदा होने लगी     
पहेलियां
कि कब चुपके से 
मेरे होठों की सरसराहट में 
बन रही सलवटों को
वह अपने होंठों की 
सलवटों में सम्मलित करेगा

वह हवा में उड़ती हुई 
सोच रही थी
कि,कब कोई
मदमस्त पंछी 
मुझसे टकरायगा
घुसकर मेरी धड़कनों में
फड़फड़ायेगा

वह महसूस करने लगी
अपनी ठंडी साँसों में
उसकी साँसों की गर्माहट

वह नहीं उड़ पायी 
ज्यादा दिनों तक आसमान में
काट गए पर
और वह 
फड़फड़ाकर गिर पड़ी
जीवन के मौजूदा घर में 
माथे की सलवटे
साड़ी की प्लेट से
लिपट गयी
जिसे वह अपने हिस्से की
सलवटें समझकर 
सुबह शाम 
सुधारती है------

◆ज्योति खरे

13 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

एक स्त्री के जीवन का शब्द चित्र ।
ज़िम्मेदारियों के बोझ तले साड़ी की ही प्लेट्स संभालती राह गयी । सब कल्पना धराशाही हो गयी ।
अद्भुत बिम्ब लास्ट हैं हर बार ।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

लाजवाब

Sweta sinha ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ जुलाई २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

M VERMA ने कहा…

बेहतरीन अभव्यक्ति

Subodh Sinha ने कहा…

"माथे की सलवटे
साड़ी की प्लेट से
लिपट गयी
जिसे वह अपने हिस्से की
सलवटें समझकर
सुबह शाम
सुधारती है------" - हर बार की तरह ऐसी अनूठी बिम्बों से लबरेज़, संवेदनशील विषय को सजीव शब्दों से उकेरने वाले चितेरे रचनाकार .. शायद ...

Bharti Das ने कहा…

बहुत खूब अनुपम अभिव्यक्ति

Jyoti khare ने कहा…

आभार आपका

Sudha Devrani ने कहा…

हाँथ की लकीरों को
जब से पढ़वाकर लौटी है
काले बादलों को भेदकर
उड़ने लगी है
कल्पनाओं के
सातवें
आसमान में
कल्पनाओं का आसमान है ही इतना अद्भुत कि बार बार गिरकर भी फिर फिर उड़ने की हिम्मत आजती है
बहुत ही लाजवाब।

Manisha Goswami ने कहा…

वह नहीं उड़ पायी
ज्यादा दिनों तक आसमान में
काट गए पर
और वह
फड़फड़ाकर गिर पड़ी
जीवन के मौजूदा घर में
माथे की सलवटे
साड़ी की प्लेट से
लिपट गयी
जिसे वह अपने हिस्से की
सलवटें समझकर
सुबह शाम
सुधारती है------
बहुत ही भावनात्मक और हृदय स्पर्शी रचना!

How do we know ने कहा…

एकदम सच है - उड़ान भी, उम्मीद भी, और मौजूदा जीवन का घर भी।

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर रचना

Zee Talwara ने कहा…

kya baat hai, wah, badi hi achhi line likhi hai, dhnyabad
Zee Talwara
Zee Talwara
Zee Talwara
Zee Talwara
Zee Talwara

SPARSH BY POETRY (SANGEETA MAHESHWARI) ने कहा…

Bhut sunder rachnaye