बात विरोधाभास से ही टकराती है
सांप के काटे चिन्ह पर
हर सुबह दीखता रहा सूरज
सांझ के आसरे में
सांप को मारकर
जीता पदक
रोज नागिन सूंघ जाती है-----
कौन कहता
हम विभाजित जी रहे
आदमी को आदमी से सी रहे
व्यर्थ में चीखकर आकाश में
दर्द में
दर्द की दवा पी रहे
खोखली
हर समय की
रूपरेखा में
एक डायन फूंक जाती है------
"ज्योति खरे"
चित्र----गूगल से साभार