पीठ पर सूरज बंधा
पेट बिलकुल खाली
कपकपाते हाथों से
बजती नहीं ताली--
आँख का काजल मिटा
मांग का सिंदूर
थरथराती देह लुटना
रॊज का दस्तूर
दरवाजों पर हो रही
आँख से दलाली--
जानते हैं इस बात को
वक्ष में फोड़ा हुआ
तरस इनकी देखिये
वह अंग छोड़ा हुआ
रोटी नुमा चाँद भी
अब दे रहा है गाली--
कांख कर कहा उसने
लोग पूछे यह कौन है
देह भी चलती बनी
सांस भी अब मौन है
चल दिये कांधे कहां
घर हो गया खाली--
"ज्योति खरे"
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
३० मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
अदभुद
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन सृजन ज्योति जी ।
जवाब देंहटाएंगजब!!
जवाब देंहटाएंनिशब्द आदरणीय।
मार्मिक सृजन सर ,सादर नमन आपको
जवाब देंहटाएंनमस्ते.....
जवाब देंहटाएंआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 01/05/2022 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....