कंक्रीट के जंगल में
जो दिख रहें हैं
जो दिख रहें हैं
सतरंगी खिले हुए
दर्दीले फूल
अनगिनत आंख से टपके
कतरे से खिलें हैं ---
फाड़कर चले जाते थे जो तुम
आहटों के रेशमी पर्दे
आश्वासनों कि जंग लगी सुई से
रोज ही सिले हैं---
जहरीली हवाओं से कहीं
बुझ ना जाए
आशाओं की डिभरी
चढ़ी है भावनाओं की सांकल
दरवाजे इसीलिए नहीं खुले हैं---
पवित्र तो कतई नहीं हो
मनाने चौखट पर नहीं आना
बदबूदार हो जाएगा वातावरण
बदबूदार हो जाएगा वातावरण
हमें मालूम है
कलफ किए तुम्हारे
सफ़ेद पीले कुर्ते
गंदे पानी से धुले हैं------
"ज्योति खरे"
चित्र
गूगल से साभार