बरगद जैसे फैले
बरसों जीते
चन्दन रहते
और विष पीते --
मौसम गहनों जैसा
करता मक्कारी
पूरे जंगल की बनी
परसी तरकारी
नंगे मन का भेष धरें
जीवन जीते----
उपहार मिला गुच्छा
चमकीले कांटों का
वार नहीं सहता मन
फूलों के चांटों का
हरियाली को चरते
शहरी चीते----
ठूंठ पेड़ से क्या मांगे
दे दो मुझको छाँव
दिनभर घूमें प्यासे
कहाँ चलाये नांव
नर्मदा के तट पर
धतूरा पीते-----
"ज्योति खरे"
बहुत सुंदर भाव
जवाब देंहटाएंब्लॉग कलेवर के क्या कहने
आभार आपका
हटाएंबरगद जैसे फैले
जवाब देंहटाएंबरसों जीते
चन्दन रहते
और विष पीते --
वाह।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-04-2019) को "फिर से चौकीदार" (चर्चा अंक-3303) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका
हटाएंबहुत सुन्दर आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
आभार आपका
हटाएं
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 11/04/2019 की बुलेटिन, " लाइफ सेट करने वाला मंत्र - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आभार आपका
हटाएंउपहार मिला गुच्छा
जवाब देंहटाएंचमकीले कांटों का
वार नहीं सहता मन
फूलों के चांटों का
हरियाली को चरते
शहरी चीते----
बहुत सुन्दर सार्थक एवं सारगर्भित रचना...
वाह!!!
आभार आपका
हटाएंआभार आपका
जवाब देंहटाएंबरगद जैसे फैले
जवाब देंहटाएंबरसों जीते
चन्दन रहते
बहुत ही सुन्दर भावों को अपने में समेटे शानदार कविता.