गुरुवार, अगस्त 06, 2020

प्रेम तुम कब आ रहे हो

प्रेम तुम कब आ रहे हो
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तार पीतल के हों
एल्युमिनियम के हों
या हों टेलीफोन के 
प्रेम के तार 
किसी भी तार से नहीं बंधते
प्रेम तो
हवा में तैरकर अपना रास्ता बनाता है

लोग जब
अपने आप से घबड़ाते हैं
तो बैचेनियाँ के पहाड़ पर
चढ़ कर
प्रेम को बुलाने की कोशिश करते हैं 
अपनी टूटती साँसों  से निकलती
थरथराती आवाज से
आग्रह करते हैं

कभी 
प्रेमी और प्रेमिका के अलावा
मुझे भी याद कर लिया करो 
कसम से 
शरीर में बिजली दौड़ जाएगी
टूटती साँसों को 
राहत का ठिकाना मिलेगा

जल्दी आओ प्रेम
रिश्तों के टकराव से
दरक रही छत पर बैठकर 
तुम्हें बताएंगें
मनमुटाव के किस्से
दिखाएंगे
कलह की जमीन के हो रहे टुकड़े

मुझे तुमको छूकर देखना है
अपने भीतर महसूसना है
जल्दी आओ प्रेम
मेरा रोम-रोम 
तुम्हारी प्रतीक्षा में 
खड़ा है 

प्रेम तुम कब आ रहे ही--- --

"ज्योति खरे "

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ७ जुलाई २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  2. प्रेम बिखरा पड़ा है कायनात में, समेटने की जरुरत है

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  3. वाह लाजवाब,प्रेम तुम कब आओगे..मूझे तुम्हे छूकर महसूस करना है।
    बहुत बहुत सुंदर।

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  4. तार पीतल के हों
    एल्युमिनियम के हों
    या हों टेलीफोन के
    प्रेम के तार
    किसी भी तार से नहीं बंधते
    प्रेम तो
    हवा में तैरकर अपना रास्ता बनाता है
    सत्य वचन ,सुंदर सृजन सर ,सादर नमन आपको

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