तुम्हें उजालों की कसम
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मैंने तुम्हें
चेतन्य आंखों से देखा है
लपटों से घिरा
ज्वालाओं से प्रज्जलित
मेरा
आखिरी सम्बल भी विचलित
आंखों में आंसू नहीं
लेकिन
मन अग्निमय हो रहा
जाने कहाँ मेरा अतीत
धुंध में खो रहा
तुझे मानसपटल से कैसे
उतार फेंकूं
ह्रदय में
स्मृति स्नेह अंकित हो रहा
तू इसे नहीं ले जा सकता
कष्टकित,भयानक
विचार श्रृंखलालाएं आती
हाथ उठाकर आंखें जो छुई
मैं खुद ही चोंक पड़ी
प्रबल ज्वाला की गोद में
जलधारा बह चली
पत्थर का ह्रदय है
फिर भी
आंसू ढ़लकने लगे तो
यह कोई रहस्य नहीं
प्रेम है
मेरे घायल मस्तिष्क की पीड़ा को
तेरी स्मृतियों का छूना
तेरे कल्याणकारी स्पर्श में
समा जाती है
हर पीड़ा
कुछ सोचो
भविष्य की गोद
इतनी अंधकारमय है
कि,ज्योतिषियों की आंखें भी
पग पग धोखा खाती हैं
अब न जाओ दूर
मेरी आत्मा तुम्हें पुकारती है
तुम्हें
उजालों की कसम----
◆ज्योति खरे