अब मैं उड़ सकूंगा
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दिन बीता,शाम बीती
रात देह पर डालकर
अंधकार की चादर
चली गयी
रात को क्या पता
आंखों में नींद
पलकों के भीतर लेट गयी
या पलकों को छूकर चली गयी
तिथि बदली
सिंदूरी सुबह ने
दस्तक दी
और एक जुमला जड़कर
चली गयी
कि,लग जाओ काम पर
दिनभर कई बार
फैलाता हूं अपनी हथेलियों को
बेहतर गुजरे दिन की दुआ
मांगने नहीं
धूल से सने पसीने को
पोंछने के लिए
और उसके लिए
जिसके बिना
अधूरा है
जीवन का चक्र
चटकीली धूप को चीरता राहत भरी ठंडी हवा के साथ
किसी फड़फड़ाते परिंदे
का पंख
हथेली की तरफ आया
यह टूटा पंख
आया है प्रेम को
खुले आसमान में उड़ाने की
कला सिखाने
अब मैं उड़ सकूंगा
पंख में लिपटे प्रेम को
आशाओं की पीठ पर बांधकर
जीवन जीने के चक्र को
पूरा करने---
◆ज्योति खरे
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शुक्रवार 09 सितम्बर 2022 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत आभार आपका
हटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंशानदार प्रस्तुति आदरनीय सर।प्रेम में लिपटे पंखों को आशा की पीठ पर लेकर उड़ने की कल्पना कितनी मनोरम है।ये श्रम बहुत दूसाध्य होते हुए भी बड़ा सुखद है
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 09 सितंबर 2022 को 'पंछी को परवाज चाहिए, बेकारों को काज चाहिए' (चर्चा अंक 4547) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
आभार आपका
हटाएंबहुत ही सुन्दर, सार्थक आशा भाव से युक्त बेहतरीन रचना आदरणीय
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंकल्पना के पंख लिए उड़ाने को तैयार मन । सुंदर रचना ।।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंआशा और प्रेम के पखों का साथ बहुत पुराना है! सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सरस रचना
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंदिनभर कई बार
जवाब देंहटाएंफैलाता हूं अपनी हथेलियों को
बेहतर गुजरे दिन की दुआ
मांगने नहीं
धूल से सने पसीने को
पोंछने के लिए
और उसके लिए
जिसके बिना
अधूरा है
जीवन का चक्र
वाह!!!
क्या बात..
आभार आपका
हटाएंवाह!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंमन में आस हो तो उम्मीद के पंख उड़ने की चाह जगा ही देते हैं.
जवाब देंहटाएंवाह !
आभार आपका
हटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंआभार आपका
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