गुरुवार, जुलाई 04, 2024

प्रेम को नमी से बचाने

प्रेम को नमी से बचाने
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धुओं के छल्लों को छोड़ता 
मुट्ठी में आकाश पकड़े
छाती में 
जीने का अंदाज बांधें
चलता रहा 
अनजान रास्तों पर 

रास्ते में
प्रेम के कराहने की 
आवाज़ सुनी 
रुका 
दरवाजा खटखटाया 
प्रेम का गीत बाँचता रहा
जब तक 
प्रेम उठकर खड़ा नहीं हुआ 

उसे गले लगाया 
थपथपाया
और संग लेकर चल पड़ा
शहर की संकरी गलियों में

दोनों की देह में जमी
प्रेम की गरमी
गरजती बरसती बरसात
बहा कर 
ज़मीन पर न ले आये
तो खोल ली छतरी
खींचकर पकड़ ली 
उसकी बाहं
और चल पड़े 
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में 
नहीं लगे फफूंद---  

◆ज्योति खरे

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह क्या भाव गूँथा है आपने सर। बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर प्रणाम सर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना

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  3. वर्त्तमान मौसम की फुहारों में जन्मा प्यारा बिम्ब .. यूँ तो क़ुदरत .. यदि कभी सम्बन्धों में फफूंद लगे भी तो .. उसे गुणकारी सिरके में बदल दे .. बस यूँ ही ...

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  4. प्रेम का गीत बाँचता रहा
    जब तक
    प्रेम उठकर खड़ा नहीं हुआ
    वाह!!!
    प्रेम को नमी से बचाने
    ताकि संबंधों में
    नहीं लगे फफूंद---
    क्या बात..
    लाजवाब सृजन ।

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