आरी
काटती है लकड़ी
वसूला
देता है आकर
रन्दा
छीलता है
चिकना करता है
छेनी
तराशती है पत्थरों को-----
यह सब औजार
कारीगरों के हाथों में आकर
दुनियां को
एक नए शिल्प में
ढालने की
ताकत रखते हैं------
लेकिन अब
कारीगरों के हाथ
काट दिये गये हैं------
बदल दिये गये हैं
सृजन के औजार
हथियारों में---------
"ज्योति खरे"
(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )
काटती है लकड़ी
वसूला
देता है आकर
रन्दा
छीलता है
चिकना करता है
छेनी
तराशती है पत्थरों को-----
यह सब औजार
कारीगरों के हाथों में आकर
दुनियां को
एक नए शिल्प में
ढालने की
ताकत रखते हैं------
लेकिन अब
कारीगरों के हाथ
काट दिये गये हैं------
बदल दिये गये हैं
सृजन के औजार
हथियारों में---------
"ज्योति खरे"
(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )
सभी कविताएं लाजवाब है सर ..... बहुत दिनों बाद एक अच्छा ब्लॉग पढ़ा .....शुक्रिया साँझा करने के लिये ......
जवाब देंहटाएंअपनी इस रचना के माध्यम से आपने सटीक चिंता ज़ाहिर की है .........सृजन करने के काबिल हाथ अब विनाश को उतारूँ हैं .........स-शक्त चित्रण
जवाब देंहटाएंऔर अगर मनुष्य इसी तरह सर्जना की वर्जना करता रहा तो अपने ही बनाए किले उसके लिए क़बरगाह साबित होंगे इसमे कोई संशय नहीं है ।
जवाब देंहटाएंek sashakt rachna
जवाब देंहटाएंhttp://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_5341.html
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है
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