शनिवार, दिसंबर 15, 2012

सृजन के औजार--------

आरी
काटती है लकड़ी
वसूला
देता है आकर
रन्दा
छीलता है
चिकना करता है
छेनी
तराशती है पत्थरों को-----

यह सब औजार
कारीगरों के हाथों में आकर
दुनियां को
एक नए शिल्प में
ढालने की
ताकत रखते हैं------

लेकिन अब
कारीगरों के हाथ
काट दिये गये हैं------

बदल दिये गये हैं
सृजन के औजार
हथियारों में---------

"ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )



6 टिप्‍पणियां:

  1. सभी कविताएं लाजवाब है सर ..... बहुत दिनों बाद एक अच्छा ब्लॉग पढ़ा .....शुक्रिया साँझा करने के लिये ......

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  2. अपनी इस रचना के माध्यम से आपने सटीक चिंता ज़ाहिर की है .........सृजन करने के काबिल हाथ अब विनाश को उतारूँ हैं .........स-शक्त चित्रण

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  3. और अगर मनुष्य इसी तरह सर्जना की वर्जना करता रहा तो अपने ही बनाए किले उसके लिए क़बरगाह साबित होंगे इसमे कोई संशय नहीं है ।

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