जैसे रात में पछाड़कर कलमुँहो ने
बगरा दी थी देह
बैठकर घाट पर उकडू
मांजने लगी
उबकाई खत्म होते ही
बंद करके नाक
नदी बहा तो ले जाती है रगदा
नहीं बहा पाती
हांफती,कांपती
चढ़ रही है घाट की सीढ़ियां
गूंज रही है
उसके बुदबुदाने,बड़बड़ाने की आवाज "ज्योति खरे"
बहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आपका कुछ लिखना हुआ ...
जवाब देंहटाएंबहुत हो प्रभावी और भावपूर्ण ... सोचने को मजबूर करती रचना ...
बेहद संवेदनशील उदगार...बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर...
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी ....सशक्त अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!सशक्त अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअंतस को झकझोर देती बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...लाज़वाब...
जवाब देंहटाएंआपकी कविताएँ ही सब कह देती हैं !! शब्दों का अथाह समंदर है आपके पास !! हर बार एक नया क़िस्सा रूबरू होता है , संवेदना मन को भेदती जाती है ।
जवाब देंहटाएंEk Sundar Rachna !!
जवाब देंहटाएंJoyti ji mere blog se judne ke liye bhaut bhaut aabhar aapka !!
संवेदनाओं को झकझोरती रचना !
जवाब देंहटाएंBhavpurn va prabhavshali
जवाब देंहटाएंबेहद सशक्त रचना
जवाब देंहटाएंbahut achha likha hai
जवाब देंहटाएंshubhkamnayen
,,बहुत मार्मिक,,
जवाब देंहटाएं....दुखिया के भाग में दु:ख ही दु:ख...एक पहाड़ जैसा
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति
उम्दा रचना
बहुत ही संवेदनशील और मार्मिक लेखन...
जवाब देंहटाएंbehud shasakt or sundar shabdon se sazi rachna.....
जवाब देंहटाएंमार्मिक भावमय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार.
पर किसी को रुक कर सोचने की फुर्सत है कहाँ ?
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक प्रस्तुति...
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