शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

गालियां देता मन ......

गालियां देता मन
देह्शत भरा माहौल
चुप्पियां दरवाजा
बंद करेंगी
खिडकियां देंगी खोल-----

आदमी की
खाल चाहिये
भूत पीटें डिडोरा---
मरी हुई कली का
खून चूसें भौंरा---

कहती चौराहे की
बुढ़िया
मेरे जिस्म का
क्या मोल-------

थर्मामीटर
नापता
शहर का बुखार---
एकलौते लडके का
व्यक्तिगत सुधार---

शामयाने में
तार्किक बातें
सड़कों में बजता
उल्टा ढोल---------
          
         "ज्योति खरे"
( उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )
  
      

4 टिप्‍पणियां:

  1. यह कविता शून्य से नीचे तापमान मैं लिखी गई है कवि सर पर कबाड़ की टोकरी रख पूरे शहर में घूमता प्रतीत होता है !

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  2. वर्तमान समय में पूर्ण रूप से प्रासंगिक

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