अब
पडोसी के अमरूद
तोड़कर नहीं खाये जाते
सीधा
पडोसी को ही कर दिया जाता है
खलास---------
लोग अब
छुट्टियों में
अपने गांव नहीं जाते
शहर में ही खोल ली है
दुश्मनी की क्लास--------
हमने पूछा
खादी के सफ़ेद कुरते में
दाग कैसा
वे कहने लगे
कम्मो की देह में कर रहे थे
संभावनाओ की तलाश-------
"ज्योति खरे"
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (26-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
बेहद गंभीर और सामयिक चिंतन, शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.
जवाब देंहटाएंमुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !
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