रविवार, जनवरी 27, 2013

सपनों को भी ऊगाना-------

उलाहना देती आवाज
गूंजती निकल जाती है
करीब से
कहती है सुनो
आम आदमी के सपने
उपज रहे हैं
जमीन से------

सिखाकर उड़ा दिये जाते हैं 
पत्थरों के महल से
कबूतर
आम आदमी के
सपनों को भदरंग करने-----

सपने तो सपने होते हैं
आपस में लड़कर टूट जाते हैं  
गिरने लगते हैं जमीन पर
फिर से ऊगने-----

वक्त के इस दौर में
सपनों को भी ऊगाना 
कठिन हो गया है--------   

     "ज्योति खरे"

26/1/13

8 टिप्‍पणियां:

  1. वक्त के इस दौर में
    सपनों को भी ऊगाना
    कठिन हो गया है--------
    वाकई....

    बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...

    सादर
    अनु

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  2. बहुत सुन्दर खरेजी...वाकई ...!

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  3. वक्त के इस दौर में
    सपनों को भी ऊगाना
    कठिन हो गया है--------

    सपनों की खेती करने के लिये आज कहाँ है वो हवा , पानी और ऊष्मा

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  4. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति .

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  5. कविता का भाव सम्प्रेषण आकर्षक है.

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