सोमवार, मार्च 18, 2013

टेसू--------



समेटकर बैचेनियां
फागुन की
दहक गया टेसू
दो घूंट पीकर
महुये की
बहक गया टेसू------

सुर्ख सूरज को
चिढ़ाता खिलखिलाता
प्रेम की दीवानगी का
रूतबा बताता
चूमकर धरती का माथा
चमक गया टेसू------

गुटक कर भांग का गोला
झूमता मस्ती में
छिड़कता प्यार का उन्माद
बस्ती बस्ती में
लालिमा की ओढ़ चुनरी
चहक गया टेसू------

जीवन के बियावान में
पलता रहा
पत्तलों की शक्ल में
ढ़लता रहा
आंसुओं के फूल बनकर
टपक गया टेसू-------

"ज्योति खरे"  

    

10 टिप्‍पणियां:

  1. बस्ती बस्ती में
    लालिमा की ओढ़ चुनरी
    चहक गया टेसू------
    ---------------------
    लाजवाब ....तन-मन पर काबिज हो गया टेसू ....

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  2. आंसुओं के फूल बनकर
    टपक गया टेसू..........वाह ज्‍योति जी टेसू के माध्‍यम से मानवीय संवदेना को तरसती धरती का विरल दुख प्रकट किया है।

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  3. जीवन के बियावान में
    पलता रहा
    पत्तलों की शक्ल में
    ढ़लता रहा
    आंसुओं के फूल बनकर
    टपक गया टेसू-------

    ....वाह! लाज़वाब प्रस्तुति..

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  4. टेसू पर अत्यंत सुन्दर कविता है। इसे पढ़ कर टेसू के फूल याद आ गए। बचपन में देखा था, होली के दिन इनको उबाल कर पीला रंग निकाला जाना। दहक, चटक, चहक बड़े सुन्दर और सार्थक प्रयोग हैं।

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