चांद रोटियों की शक्ल में ढल गया
भूख और पेट की बहस में
भूख और पेट की बहस में
दर्द कराह कर
जंग लगे आटे के कनस्तर में समा गया
तुम्हारे खामोश शब्द
समुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और एक दिन तुम
अक्टूबर की शर्मीली ठंड में
अक्टूबर की शर्मीली ठंड में
अपने दुपट्टे में बांधकर जहरीला वातावरण
उतर आयी थी
शरद का चाँद बनकर
मेरी खपरीली छत पर
# ज्योति खरे
चित्र--- गूगल से साभार
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 20 जुलाई 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंतुम्हारे खामोश शब्द
जवाब देंहटाएंसमुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और मैं प्रेम को बसाने की जिद में
बनाता रहा मिट्टी का घरोंदा---
गहनतम।
ओह! समय सबसे निर्दयी है जो मधुर स्मृतियां, सुनहरे सपने और उम्मीदों के चांद को समेटकर मात्र रोटी और जीवन के आवश्यक दायित्वो तक सीमित कर देता है।। फिर भी प्रेम की शक्ति और विस्तार असीम है, कोआखिर पहुंच ही जाता है छत चांद बनकर। भावपूर्ण अभिव्यक्ति जो मन को सुकून देती है। सादर शुभ कामनाएं 🙏🙏💐💐
जवाब देंहटाएंचांद रोटियों की शक्ल में ढल गया
जवाब देंहटाएंभूख और पेट की बहस में
गुम गयी
अंतहीन सपनो के झुरमुट में स्मृतियां
दर्द कराह कर
जंग लगे आटे के कनस्तर में समा गया
ओह!!!
बहुत ही हृदयस्पर्शी...लाजवाब सृजन
चाँद रोटियों में ढलक गया .... और सपने सपने ही रह गए ....
जवाब देंहटाएंगहन भाव , मर्मस्पर्शी रचना
जवाब देंहटाएंकुछ कागज में लिखी स्मृतियाँ
कुछ में सपने
कुछ में दर्द
कुछ में लिखा चाँद
चांद रोटियों की शक्ल में ढल गया
भूख और पेट की बहस में
गुम गयी
अंतहीन सपनो के झुरमुट में स्मृतियां.. वाह,सुंदर भावों का सृजन।
तुम्हारे खामोश शब्द
जवाब देंहटाएंसमुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और मैं प्रेम को बसाने की जिद में
बनाता रहा मिट्टी का घरोंदा
प्रेम बस ही जाता है खपरीली छत के नीचे भी,बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सर,सादर नमन