मंगलवार, फ़रवरी 09, 2016

अंधेरे में आया था




शंकाऐं ह्रदय तट पर
जमघट लगाएं
अरमान मरघट सजाऐं---

बांधकर
दाल दी है मैंने
गठरी में
यातनायें और पीड़ा
फिर भी रेंगता है
सूखे जलाशय का कीड़ा
अन्तःस्थल में
रेगिस्तान सी
जलती हुई बालू
रोम रोम झुलस रहा
मन चिंघाड़ रहा
आत्मसंतोष है
फिर क्यों सूख रहा तालू---
जीवन का दूसरा
पन्ना पलटना चाहता हूं
अतीत के इतिहास पर
व्यंग भरी हंसी
हंसना चाहता हूं---
ना जाने किस पाषाड़ से
जन्म पाकर
पत्थरों के शहर में
गिड़गिड़ा रहा हूं
खून अपना अमृत समझकर
पी रहा हूं----
शिवालय भी पत्थर के
पत्थर से बनते हैं
अपनी ही ममता को
अपने ही हांथों से पटकते हैं
शरीर से जुडी परछांई
मेरी पावन सहेली है
मेरी जिंदगी तो
अभावों के साथ खेली है----
यातनाऐं न होती तो
कामनाओं से न जूझता
कमनाऐं न होती तो
यातनाओं से न जूझता
अंधेरे में आया था
अंधेरे में जा रहा हूं
खून अपना अमृत
समझकर पी रहा हूं-----
                                     
"ज्योति खरे" 

चित्र- गूगल से साभार

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