रविवार, जून 23, 2019

रिक्शे वाला

रिक्शे वाला
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मैं न प्रेमी हूं
न आशिक हूं
न मंजनू हूं
न दीवाना हूं
मेरा काम है
सुबह से सड़कोँ पर
मनुष्य की मनुष्यता को ढ़ोना
रोज कमाना
रोज खाना

शाम को बैठ जाता हूँ
शहर की सूखती नदी के किनारे
करता हूँ नदी से ढेर सारी बातेँ
समझाता हूं उसे
बहती रहो
तुम इस सदी में तो नहीं सूखोगी
क्योंकि, तुम बहाकर ले जाती हो दुख
और दिनभर की जहरीली बातेँ.

सोता हूँ खुले आसमान के नीचे
देखता हूँ सपनीले सपने
सपने मेँ तलाशता हूँ
शायद कभी कोई मिल जाए अपना

यदि किसी मेँ जीवित हो थोड़ी सी भी संवेदना और हो मुझसे मिलने की ललक
तो किसी भी चौराहे पर चले आना
मेरी पहचान है
रिक्शे वाला

आटो के इस दौर में
मुझे कम लोग पहचानते हैँ
अगर पहचान जाओ
तो महरबानी आपकी

कभी कभी
लोग आते हैं
प्रेम भरी बातें करतें हैं
महगाई के इस दौर मेँ भी
मैं प्रेम के धोके में फंस जाता हूं
उनकी बातों में उलझ जाता ह़ू
क्योंकि
मोलभाव करके ही
मेरी पीठ पर बैठकर लोग
गंतव्य की ओर
जाना पसंद करते हैं ---  

"ज्योति खरे "

9 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 23/06/2019 की बुलेटिन, " अमर शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी जी की ११८ वीं जयंती - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. रिक्शेवाले के मन के वेदना की गहराई को व्यक्त करती बहुत सशक्त रचना।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-06-2019) को "बादल करते शोर" (चर्चा अंक- 3377) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. असाधारण।
    सार्थक सटीक मर्मस्पर्शी रचना।

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