तुम्हारी मुठ्ठी में कैद है-तुम्हारा चाँद
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चाँद को तो
उसी दिन रख दिया था
तुम्हारी हथेली पर
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने
सूरज से चमकते तुम्हारे गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे मैने
कई कई चाँद
चाँद को तो
उसी दिन रख दिया था
तुम्हारी हथेली पर
जिस दिन
विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुनरी
और अब
क्यों देखती हो
प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
चाँद----
तुम्हारी मुट्ठी में तो कैद है
तुम्हारा अपना चाँद----
"ज्योति खरे
आटे की छलनी
जवाब देंहटाएंपकड़ी जरूर होती है
चाँद को मुट्ठी में
मगर कुलबुलाहट
हो रही होती है :) :)
वाह
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-10-2019) को "बुरी नज़र वाले" (चर्चा अंक- 3488) पर भी होगी।
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रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन सर ,सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंवाह विशुद्ध नजरिया।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !
सच्चे प्यार में न तो व्रत की ज़रूरत है और न ही महंगे तोहफ़े की !
बहुत सुन्दर सृजन ।
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २० मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार आपका
हटाएंकमाल का वार।
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना।
सच्चा प्रेम क्या है?
यही है
यही है
यही है।
आभार आपका
हटाएंइस प्रेम के आगे सारे बेशकीमती उपहार तुच्छ हैं। बड़ी प्यारी अभिव्यक्ति है आदरणीय खरे जी। सादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंवाह, ! आदरणीय सर , प्रेम के इस अनोखे चाँद के आगे गगन का चाँद भी फीका है।बेबाक प्यार भरी प्यारी सी रचना 👌👌👌🙏🙏
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंप्यार की प्यारी सी रचना | सादर नमन आपको
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