शनिवार, अप्रैल 04, 2020

इन दिनों सपने नहीं आते


सपने
अभी अभी लौटे हैं
कोतवाली में
रपट लिखाकर

दिनभर
हड़कंप मची रही
सपनों की बिरादरी में
क्या अपराध है हमारा
कि आंखों ने
बंद कर रखे हैं दरवाजे

बचाव में
आंखों ने भी
रपट लिखा दी
दिनभर की थकी हारी आंखेँ
नहीं देखना चाहती सपने

जब समूची दुनियां में
कोहराम मचा हो
मृत्यु के सामने 
जीवन
जिंदा रहने के लिए 
घुटनों के बल खड़ा 
गिड़गिड़ा रहा हो 

मजदूर और मजबूर लोग 
शहरों और महानगरों से
अपना कुछ जरुरी सामान 
सिर पर रखकर 
पैदल जा रहें हों

भुखमरी ने पांव पसार  लिए हों 
भय और आशंका ने  
दरवाजों पर सटकनी चढ़ा रखी हो
नींद आंखों से नदारत हो तो 
आंखें   
सपने कहां देख पायेंगी
इनसे केवल 
आंसू ही टपकेंगे 

सपने और आंखों की
बहस में 
शहर में 
लोगों में 
तनाव और दंगे का माहौल बना है
शांति के मद्देनजर
दोनों हवालात में
नजरबंद हैं

जमानत के लिए
अफरा तफरी मची है-----


29 टिप्‍पणियां:

  1. समसामयिक यथार्थवादी लेखन।
    सराहनीय अभिव्यक्ति।
    सादर प्रणाम सर।

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  2. बेहतरीन व लाजवाब , आजकल की मानसिक स्थिति का सटीक चित्रण ।

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (06 -04-2020) को 'इन दिनों सपने नहीं आते'(चर्चा अंक-3663) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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  4. बहुत सुंदर कविता। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  5. आँखों ने भी लॉकडाऊन कर दिया और सपने सोशल डिस्टेंसिंग का शिकार हो गए !
    समसामयिक परिस्थिति का सटीक अवलोकन। सादर प्रणाम।

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  6. बहुत ही सुंदर सृजन आदरणीय सर
    सादर

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  7. मार्मिक सृजन सर ,सादर नमन आपको

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  8. वाह! दार्शनिक अंदाज़ की सारगर्भित रचना जो पाठक को बरबस अंत तक पढ़ने को विवश करती है तत्पश्चात गहरे चिंतन में डुबो देती है। बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना। बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    सादर नमन सर।

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  9. इस रचना को लेकर अब मुँह और वाणी भी कोतवाली की राह पकड़ चुके है। बहुत बार पढ़ा। अद्भुत बिम्ब!

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  10. गहरा कटाक्ष ... आज के समय में सपने और कहाँ मिल सकते हैं ...
    लाजवाब ...

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  11. मन में बेचैनी भर देने वाली रचना. आज के हालात पर बहुत गहन भाव. उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई.

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