प्रेम
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मैंने जब जब प्रेम को
हथेलियों में रखकर
खास कशीदाकारी से
सँवारने की कोशिश की
प्रेम
हथेलियों से फिसलकर
गिर जाता है
औऱ मैं फिर से
खाली हाँथ लिए
छत के कोने मैँ बैठ जाती हूँ
चांद से बतियाने
रतजगे सी जिंदगी में
सपनों का आना भी
कम होता है
जब भी आतें हैं
लिपट जाती हूँ
सपनों की छाती से
ओढ़ लेती हूं
आसमानी चादर
चांद
एक तुम ही हो
जो कभी पूरे
कभी अधूरे
दिखते हो
मिलते हो
सरक कर चांद
उतर आया छत पर
रात भर
सुनता रहा
औऱ नापता रहा
सपनों से प्रेम की दूरी
फेरता रहा माथे पर उंगलियां
सपनों में उड़ा जाता है
प्रेम में बंधा जाता है---
"ज्योति खरे"
लाजवाब सृजन
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 11 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंसुंदर प्रस्तुति, शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (११-०९-२०२०) को '' 'प्रेम ' (चर्चा अंक-३८२२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
आभार आपका
हटाएंप्रेम
जवाब देंहटाएंहथेलियों से फिसलकर
गिर जाता है
औऱ मैं फिर से
खाली हाँथ लिए
छत के कोने मैँ बैठ जाती हूँ
चांद से बतियाने
बहुत खूब,सादर नमन सर
आभार आपका
हटाएंबेहद खूबसुरत। चलचित्र प्रस्तुत कर रही है रचना।
जवाब देंहटाएंप्रेम के भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए बहुत ही बेहतरीन पात्र को चुना है आपने।
उम्दा!!!
मैंने जब जब प्रेम को
जवाब देंहटाएंहथेलियों में रखकर
खास कशीदाकारी से
सँवारने की कोशिश की
प्रेम
हथेलियों से फिसलकर
गिर जाता है
क्योंकि प्रेम को बनावटीपन पसन्द नहीं
बहुत ही लाजवाब सृजन
वाह!!!
आभार आपका
हटाएंखूब अल्फ़ाज़
जवाब देंहटाएंशानदार
चादर
जवाब देंहटाएंचांद
एक तुम ही हो
जो कभी पूरे
कभी अधूरे
दिखते हो
मिलते हो,,,,,, बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण ।
सरक कर चांद
जवाब देंहटाएंउतर आया छत पर
रात भर
सुनता रहा
औऱ नापता रहा
सपनों से प्रेम की दूरी
फेरता रहा माथे पर उंगलियां
सपनों में उड़ा जाता है
प्रेम में बंधा जाता है---
जादुई, मनमोहक !!!