अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम बरगद नीचे
तपती गरमी जेठ मास में-
प्यास प्यार की लगी हुयी
होंठ मांगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना
रूप सांवला हवा छू रही
बेला महकी जेठ मास में--
बोली अनबोली आंखें
पता मांगती घर का
लिखा धूप में उंगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़कों पर
राहें पिघली जेठ मास में---
स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग खिले जब
यादें टपकी जेठ मास में-----
"ज्योति खरे"
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ जून २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आभार आपका
हटाएंजेठ मास में भी इतनी प्यारी यादें टपक रहीं ।
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण रचना ।
आभार आपका
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-06-2022) को चर्चा मंच "दो जून की रोटी" (चर्चा अंक- 4450) (चर्चा अंक-4395) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका
हटाएंवाह वाह!सुंदर सामयिक सृजन
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण कृति ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंस्मृतियों के उजले वादे
जवाब देंहटाएंसुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग खिले जब
यादें टपकी जेठ मास में-----
वाह!!!
जेठ मास में पसीने संग इतनी खूबसूरत यादें टपकी हैं...
बहुत ही सुन्दर... लाजवाब।
आभार आपका
हटाएंबहुत सुंदर।अद्भुत अहसास!!!
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंस्मृतियों के उजले वादे
जवाब देंहटाएंसुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग खिले जब
यादें टपकी जेठ मास में--- जेठ मास का अद्भुत चित्रांकन ।
आभार आपका
हटाएंखूबसूरत सृजन🙏
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंजेठ मास में बहुत उम्दा अभिव्यक्ति आदरणीय सर ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंवाह ! जलते तपते जेठ मास में भी एक खूबसूरती हो सकती है परंतु उसे देखने समझने के लिए कवि का हृदय सबके पास कहाँ होता है !!!
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