रविवार, जून 05, 2022

विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते हुए

निकले थे 
गमझे में
कुछ जरुरी सामान बांध कर   
कि किसी पुराने पेड़ के नीचे 
बैठेंगे
और बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
पेड़ की छांव में
गक्क्ड़ भरता बनाकर
भरपेट खायेंगे 

हरे और बूढ़े
पेड़ की तलाश में
विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते रहे

सोचा हुआ कहां
पूरा हो पाता है 

सच तो यह है कि 
हमने 
घर के भीतर से 
निकलने और लौटने का रास्ता 
अपनों को ही काट कर बनाया है----

◆ज्योति खरे

23 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(६-०६-२०२२ ) को
    'समय, तपिश और यह दिवस'(चर्चा अंक- ४४५३)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. सच तो यह है कि
    हमने
    घर के भीतर से
    निकलने और लौटने का रास्ता
    अपनों को ही काट कर बनाया है----

    आने ही तो काटते हैं रास्ते को , गहन अभव्यक्ति ।

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  3. आपकी लिखी रचना 6 जून 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  4. वाह वाह!!
    पर्यावरण दिवस पर एक गहरी अनुभूति लिए सुंदर रचना ।

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  5. विकलांग पेड क्या गज़ब का बिंब उकेरे हैं सर।
    गहन चिंतन से उपजी धारदार अभिव्यक्ति।
    प्रणाम
    सादर।

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  6. वृक्षों से अटूट लगाव न जाने आज के युग में कहाँ खो गया …,मन को छूती गहन अभिव्यक्ति ।

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  7. वाह बढिया अभिव्यक्ति सर

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  8. बहुत सुंदर! एक कठोर सत्यको परिभाषित करती रचना।
    मैंने कल भी टिप्पणी की थी आज नहीं दिखाई दे रही‌।

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