अपने चेहरे में
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वर्षों से सम्हाले
प्यार के खुरदुरेपन ने
खरोंच डाला है
चेहरे को
लापता हो गयी हैं
दिन,दोपहरें और शामें
काश
पीले पड़ रहे चेहरे को
सुरमा लगाकर
पढ़ पाता इंद्रधनुष
उढ़ा देता
सतरंगी चुनरी
जब कोई
छुड़ाकर हाथों से हाथ
बहुत दूर चला जाता है
तो छूट जाते हैं
जाने-अनजाने
अपनों से अपने
अपने ही सपने
कांच की तरह
टूटकर बिखर जाता है जीवन
फिर नये सिरे से
कांच के टुकड़ों को समेटकर
जोड़ने की कोशिश करते हैं
देखते हैं
अपने चेहरे में
अपनों का चेहरा---
◆ज्योति खरे
टूटे काँच की महीन किर्चियाँ चुभती रहती है आजीवन हम चाहे न चाहे कुछ दर्द साँसों का हिस्सा हो जाती है।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति सर।
प्रणाम सादर
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ सितंबर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत आभार आपका
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंबेहद खूबसूरत भाव....फिर से जोड़कर देखने की कोशिश 👌👌
जवाब देंहटाएं#chandana
आभार आपका
हटाएंसुन्दर कृति
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंकोमल भावों से सजी सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंवाह।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंजब कोई
जवाब देंहटाएंछुड़ाकर हाथों से हाथ
बहुत दूर चला जाता है
तो छूट जाते हैं
जाने-अनजाने
अपनों से अपने
अपने ही सपने
कांच की तरह
टूटकर बिखर जाता है जीवन
सटीक एवं उत्कृष्ट सृजनवाह!!!
आभार आपका
हटाएंएक वक्त आता है जब हम अपने आप में ही अपनों को खोजने लगते हैं। मन की चलविचल स्थिति का सटीक चित्रण। सादर।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंजीवन के पहलुओं को संजीदगी से स्पर्श करती लाजवाब कृति ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंबहुत खूब ... कमाल का लिखते हैं आप ...
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