सफ़र से लौटकर
आने की आहटों से चौंक गये
बरगद,नीम,आम
महुओं का
उड़ गया नशा
बड़े बड़े दरख्तों के
फूल गये फेंफडे
हर तरफ
कान में रस घोलता शोर
खुल गये कनखियों से
बंधन के छोर
खरीदकर ले आया मौसम
चुनरी में बांधकर
सुगंध उधार
कलियों की धड़कनों को
देने उपहार
फूलों में आ गयी
गुमशुदा जान
आतुर हैं कलियां
चढ़ने परवान
सूख रहे पनघट पर
ठिठोली की जमघट
सज रहे अनगिनत
रंगों से घूंघट
प्रेम के रोग की
इकलौती दवा
आ गयी इठलाती
बासंती हवा-------
"ज्योति खरे"
बड़ी ही मीठी सी कविता..
जवाब देंहटाएंsundar Aabhivyakti...
जवाब देंहटाएंhttp://ehsaasmere.blogspot.in/2013/02/blog-post_11.html
सूख रहे पनघट पर
जवाब देंहटाएंठिठोली की जमघट
सज रहे अनगिनत
रंगों से घूंघट
प्रेम के रोग की
इकलौती दवा
आ गयी इठलाती
बासंती हवा-------बहुत सुन्दर।
namaste jyoti ji
जवाब देंहटाएंbahut sundar varnan aur sundar rachna , badhai aapko
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंbasant ka sundar swagat kiya jai....apne kavy me....
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब ... सादर !
जवाब देंहटाएंबुलेटिन 'सलिल' रखिए, बिन 'सलिल' सब सून आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !