गरजता, धड़धड़ाता
अपनी उत्तेजनाओं को बरसाता
चला जाता है-----
चला जाता है-----
देखकर खरोंची देह
कराहती,सिसकती
कराहती,सिसकती
मासूम धूप
उंगलियां चटकाती
दे रही जी भर कर गाली
मादरजात
कलमुंहे बादल
कलमुंहे बादल
टपकाकर चले गये
काली बूंदें -----
बरसा लो
अपने भीतर का
कसैला चिपचिपा पानी
नियम के विरुद्ध जाने का परिणाम
आज नहीं तो कल
भुगतना पड़ेगा------
नदारत हो जायेगी जिस दिन ये धूप
धरती पर जिया जा रहा बेहतर जीवन
अंधेरों की तहो में
समा जायेगा
बादल
बूंद बूंद बरसने
तरस जायेगा-------
"ज्योति खरे"
अन्तिम पंकियाँ बहुत सुन्दर !
जवाब देंहटाएंकर्मफल |
अनुभूति : वाह !क्या विचार है !
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन की आज कि बुलेटिन राष्ट्रीय झण्डा अंगीकरण दिवस, मुकेश और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंsach kaha apne.....abhi bhi samay hai..agar sambhal liya tho pachtana nahi padega....sundar rachna
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जवाब देंहटाएंक्या बात है
बहुत खूब बेहतरीन
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव लिए रचना |
जवाब देंहटाएंbehad umda...shat shat naman sir!!!
जवाब देंहटाएंbehad umda...shat shat naman sir!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंगहरे भाव लिये सुंदर रचना..
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