आवाजों को
सिरे से खारिज कर
अपने मजबूत पांव में
बांधकर आत्मनिर्भरता
हम तो लौट रहें हैं अपने गांव--
शातिरों ने
संवेदनाएं
लिखकर कागज में भेजी
रोटियों के बदले
खाली पन्नी भेजी
झुलसा हुआ जीवन
भींग रहा है
भूखा पेट चीख रहा है
तुम बचाओ अपना आत्मसम्मान
हम तो लौट रहे हैं अपना गांव--
सूरज की खामोशियां
सब जानती हैं
तपती हवायें
पसीने और आंसुओं को
पहचानती हैं
लाठियां क्या रोकेंगी
हमारे इरादे
तुम्हारे शब्दजालों को फाड़कर
हम तो लौट रहें हैं अपने गांव---
उजाले
कितने चालक निकले
दे गये धोखा
इन दिनों
पास में माचिस तो है
पर तीली नहीं
है सिर्फ धोखा
आश्वासनों की दुकान से
रहन रखे
जीवन को छुड़ाकर
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव----
"ज्योति खरे"
पांव में
जवाब देंहटाएंबांधकर आत्मनिर्भरता
सटीक।
हम तो लौट रहे है अपने गाँव.... तोड़ते हुए अहंकार, राजमार्ग का, उसकी लंबाई का!
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसूरज की खामोशियां
सब जानती हैं
तपती हवायें
पसीने और आंसुओं को
पहचानती हैं
लाठियां क्या रोकेंगी
हमारे इरादे
तुम्हारे शब्दजालों को फाड़कर
हम तो लौट रहें हैं अपने गांव---
जो श्रमवीर हैं ,कर्मवीर हैं ,जिनकी हड्डियां धुप में तपी हैं उन्हें कौन डरा सकता हैं कौन रोक सकता हैं ,जो इन शब्दजालो का बंधन कई बार तोड़ चुके हैं उन्हें कौन बाँध सकता हैं ,हाँ ये अलग बात हैं कि -उनके इस हाल को दिख मानवता कही मुँह दिखने लायक नहीं रही ,मार्मिक सृजन सर ,सादर नमन आपको
आज की स्थिति पर प्रहार करती उम्दा रचना बढ़िया शब्दों के साथ
जवाब देंहटाएंआश्वासनों की दुकान से
जवाब देंहटाएंरहन रखे
जीवन को छुड़ाकर
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव----
अत्यंत संवेदनशील सृजन।
जिन्हें अपने श्रम पर भरोसा है वह निष्कर्म कैसे बैठ सकते हैं, अपनी मेहनत से अपना भाग्य संवारने वे लौट गए हैं एक नई सुबह की आशा में, सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआश्वासनों के धोखे का जाल बहुत बड़ा है, आत्मसम्मान मिट रहा है. जो लौट रहे हैं, वे वापस आएँगे या नहीं, मालूम नहीं. बहुत मार्मिक रचना.
जवाब देंहटाएंशातिरों ने
जवाब देंहटाएंसंवेदनाएं
लिखकर कागज में भेजी
रोटियों के बदले
खाली पन्नी भेजी
झुलसा हुआ जीवन
भींग रहा है
भूखा पेट चीख रहा है
तुम बचाओ अपना आत्मसम्मान
हम तो लौट रहे हैं अपना गांव--
वस्तुस्थिति दर्शाती सुंदर अभिव्यक्ति।
आश्वासनों की दुकान से
जवाब देंहटाएंरहन रखे
जीवन को छुड़ाकर
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव
सार्थक अभिव्यक्ति आदरणीय...सादर
बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी रचना ... काश सभी सकुशल घरों को पहुंचें ...
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(२३-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २२ "मज़दूर/ मजूर /श्रमिक/श्रमजीवी" (चर्चा अंक-३७११) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
शातिरों ने
जवाब देंहटाएंसंवेदनाएं
लिखकर कागज में भेजी
रोटियों के बदले
खाली पन्नी भेजी
झुलसा हुआ जीवन
भींग रहा है
भूखा पेट चीख रहा है
तुम बचाओ अपना आत्मसम्मान
हम तो लौट रहे हैं अपना गांव--
लौटना ही पड़ रहा है और कोई चारा भी तो नहीं
बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।
बहुत सार्थक आह्वान है , ये सच है कि इन्हें खून पसीने की ही खानी है' और प्राण से ज्यादा कोई इनसे क्या लें लेगा!
जवाब देंहटाएंबस इनकी जरूरत जब जरूरत मंदो को पड़ेगी तब तस्वीर जरूर बदलेगी ।
सार्थक सृजन।