प्यार मैं ही, मैं करूं
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मन-मधुर वातावरण में
प्यार बाँटें
प्यार कर लें
दु:ख अपने पांव पर
जो खड़ा था,
अब दौड़ता है
हर तराशे सुख के पीछे
कोई पत्थर तोड़ता है
आओ करें हम
नव सृजन-
एक मूरत और गढ़ लें
'प्यारे',
प्यार मैं ही मैं करूं
और तुम कुछ ना करो
कैसे बंधाऊं आस मन को
तुम 'न' करो, न 'हाँ' करो!
रतजगे-सी जिन्दगी में
हम कहाँ से
नींद भर लें----
लंबा सफ़र है
हम सभी का
हम मुसाफिर हैं सभी
दौड़ते हैं, हांफते हैं
या बैठते हैं हम कभी
यह सिलसिला है राह का,
प्यार से
कुछ बात कर लें-----
"ज्योति खरे"
सुंदर रचना सर
जवाब देंहटाएंलाज़वाब
जवाब देंहटाएंमनुहार भरी हर पंक्ति बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन सर।
प्रणाम
सादर।
आभार आपका
हटाएंआओ करें हम
जवाब देंहटाएंनव सृजन-
एक मूरत और गढ़ लें
मन मुग्ध करती बहुत ही खूबसूरत रचना आदरणीय सर!
सादर!
आभार आपका
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-2-22) को "प्यार मैं ही, मैं करूं"(चर्चा अंक 4348)पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
आभार आपका
हटाएंबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंलंबा सफ़र है
जवाब देंहटाएंहम सभी का
हम मुसाफिर हैं सभी
दौड़ते हैं, हांफते हैं
या बैठते हैं हम कभी,,,,,, बहुत सुंदर रचना,जीवन का आईना है आपकी लिखी। पंक्तियाँ
समरसता का भाव लिए लाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंसुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार आपका
हटाएंआओ करें हम
जवाब देंहटाएंनव सृजन-
एक मूरत और गढ़ लें
बहुत सुंदर
आभार आपका
हटाएंलंबा सफ़र है
जवाब देंहटाएंहम सभी का
हम मुसाफिर हैं सभी
दौड़ते हैं, हांफते हैं
या बैठते हैं हम कभी।
सार्थक सृजन।
अप्रतिम।