शुक्रवार, अक्टूबर 19, 2012

रेत

रेत
तुमसे बात करना
तुम्हे मुट्ठी में भरना
तुम्हारी भुरभुरी छाती पर
उँगलियों से नाम लिखना
बहुत भाता है
तुमसे कई जन्मों का नाता है-------

रेत
अपनी लगती हो तुम
चिपक जाती हो
खुरदुरी देह पर
भर जाती हो 
खली जेब में-------

रेत
कल्पनाओं की जमीन पर बना
अहसास का घरौंदा हो
सहयोग से ही तुम्हारे
बनते हैं पदचिन्ह
नहीं मिटाती तुम
अपनी चमकीली देह पर बने
 उंगलियों के निशान--------

रेत
अपनी संगठित परत में
समा लो
जीवन की नदी में
अपने साथ बहा लो---------
                "ज्योति खरे"
(उंगलियाँ कांपती क्यों हैं---से )
 



11 टिप्‍पणियां:

Shubhansh Khare ने कहा…

behatrin

बेनामी ने कहा…

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सीमांत सोहल ने कहा…

सहज,सरल कविताएं !

सीमांत सोहल ने कहा…

सहज,सरल कविताएं

shivangi ने कहा…

perfct.........

shivangi ने कहा…

perfect.......

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

रेत के माध्यम से गढ़ा गया मार्मिक एहसास सुंदर रचना, मन को छूती हुई।

रंजू भाटिया ने कहा…

सच्ची सुंदर रचना

Sweta sinha ने कहा…

मन छूती बेहतरीन अभिव्यक्ति सर।
प्रणाम
सादर।

Sudha Devrani ने कहा…

रेत
अपनी लगती हो तुम
चिपक जाती हो
खुरदुरी देह पर
भर जाती हो
खाली जेब में-
वाह !!!
इतना पास तो अपना ही आता है न...
बहुत सुन्दर भावपूर्ण सृजन।

रेणु ने कहा…

वाह! रेत से भी संवाद 👌👌👌👌👌बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति आदरनीय सर।🙏🙏