गुरुवार, अक्टूबर 17, 2024

थिरकेगा पूरा गांव

थिरकेगा पूरा गांव
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तुम्हारी चूड़ियों की 
पायलों की 
तभी आती है आवाज़
जब में जुटा रहता हूं
काम पर

तुम्हारी आहटें 
मेरे चारों तरफ 
सुगंध का जाल बनाती है 
मैं इस जाल में उलझकर 
पुकारता हूं तुम्हें

मजदूर हूँ 
मजदूरी करने दो
रोटी के जुगाड़ में 
खपने दो दिनभर 
समय को साधने की फिराक में 
लड़ने दो सूरज से
चांद के साथ विचरने दो
चांदनी के आंचल तले
बुनने दो सपनें

समय की नज़ाकत को समझो 
चूड़ियों को 
पायलों को 
बेवजह मत खनकाओ 

मुझे जीतने तो दो
रोटी,घर और उजाला 

चाहता हूं 
मेरे साथ 
मेरे मजदूर भाई भी
जीत लें 
रोटी,घर और उजाला

जिस दिन जीत लेंगे उजाला
उस दिन 
घुंघुरुदार पायलें
देहरी देहरी बजेंगी
चूड़ियों की खनकदार हंसी 
अच्छी लगेंगीे

चाँद बजायेगा बांसुरी
तबले पर थाप देगा सूरज
चांदनी की जुल्फों से 
टपकेगी शबनम

फिर तुम नाचोगी 
मैं गाऊंगा 
और थिरकेगा पूरा गांव

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अगस्त 08, 2024

तुम्हारी खिलखिलाहट में

तुम्हारी खिलखिलाहट में
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यह बात क्यों नहीं मानती कि
बिना आभूषण
बिना श्रृंगार के
वैसे ही लगती हो
जैसी की तुम हो

शांत,निर्मल
बहती नदी सी
जिसकी कगार पर आकर
कहां ठहर पाते हैं
मान,अपमान,माया
तुम्हारी देह में समा जाना चाहते हैं
जीवन के सारे द्वन्द 

प्रेम का बीजमंत्र हो
साँझ की आरती हो
क्योंकि तुम
तुम ही हो

अब ध्यान से सुनो 
मेरी बात

मैं
तुम्हारी खिलखिलाहट में
अपनी खिलखिलाहट
मिलाना चाहता हूं

तुम्हारे स्पर्श की
नयी व्याख्या 
लिखना चाहता हूं

अब खिलखिलाना बंद करो
और मुझे
लिखने दो----

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जुलाई 25, 2024

याद करती है माँ

माँ
जब तुम याद करती हो
मुझे हिचकी आने लगती है
मेरी पीठ पर लदा
जीत का सामान
हिलने लगता है

विजय पथ पर
चलने में
तकलीफ होती है

माँ
मैं बहुत जल्दी आऊंगा
तब खिलाना
दूध भात
पहना देना गेंदे की माला
पर रोना नहीं
क्योंकि
तुम रोती बहुत हो
सुख में भी
दुःख में भी----
                                                        ◆ज्योति खरे

गुरुवार, जुलाई 11, 2024

समीप खीचते हुए

समीप खीचते हुए
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मेरे और तुम्हारे 
विषय को लेकर
मनगढ़ंत किस्सों में
बेतुकी बातें दर्ज हैं

यहां तक कि,
दीवारों पर भी लिख दिया गया है
मेरा और तुम्हारा नाम 
बना दिया है दिल 
और उस दिल को 
तीर से भी चीर दिया गया है

तुम हमेशा
मेरे करीब आने से डरती हो
कहती हो
कि, लोग तरह तरह की कहानी गढ़ेंगे
लिख देंगें
उपन्यास 

मैंने
अपने समीप खीचते हुए
उससे कहा
बाँध लो 
अपनी चुन्नी में 
हल्दी चांवल के साथ 
अपना प्रेम 

सारे किस्से 
लघु कथा में सिमट जाएंगे--- 

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जुलाई 04, 2024

प्रेम को नमी से बचाने

प्रेम को नमी से बचाने
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धुओं के छल्लों को छोड़ता 
मुट्ठी में आकाश पकड़े
छाती में 
जीने का अंदाज बांधें
चलता रहा 
अनजान रास्तों पर 

रास्ते में
प्रेम के कराहने की 
आवाज़ सुनी 
रुका 
दरवाजा खटखटाया 
प्रेम का गीत बाँचता रहा
जब तक 
प्रेम उठकर खड़ा नहीं हुआ 

उसे गले लगाया 
थपथपाया
और संग लेकर चल पड़ा
शहर की संकरी गलियों में

दोनों की देह में जमी
प्रेम की गरमी
गरजती बरसती बरसात
बहा कर 
ज़मीन पर न ले आये
तो खोल ली छतरी
खींचकर पकड़ ली 
उसकी बाहं
और चल पड़े 
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में 
नहीं लगे फफूंद---  

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जून 27, 2024

चिमटियों में लटके किरदार

चिमटियों में लटके किरदार
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बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का आंगन
अभी तक गीला है
माँ के आंसू बहे हैं

कितनी मुश्किलों से खरीदा था
ईंट,सीमेंट,रेत
जिस साल पिताजी बेच कर आये थे
पुश्तैनी खेत
सोचा था
शहर के पक्के घर में
सब मिलकर हंसी ठहाके लगायेंगे 
तीज-त्यौहार में
सजधज कर 
मालपुआ खायेंगे

घर बनते ही सबने
आँगन और छत पर
गाड़ ली हैं अपनी अपनी बल्लियाँ
बांध रखे हैं अलग अलग तार
तार पर फेले सूख रहे हैं
चिमटियों में लटके
रंग बिरंगे किरदार

इतिहास सा लगता है
कि,कभी चूल्हे में सिंकी थी रोटियां
कांसे की बटलोई में बनी थी
राहर की दाल
बस याद है
आया था रंगीन टीवी जिस दिन
करधन,टोडर,हंसली
बिकी थी उस दिन

बर्षों बीत गये
चौके में बैठकर
नहीं खायी बासी कढ़ी और पूड़ी
बेसन के सेव और गुड़ की बूंदी
अब तो हर साल
बडी़ और बिजौरे में
लग जाती है फफूंद
सूख जाता है
अचार में तेल

औपचारिकता निभाने
दरवाजे खुले रखते हैं
एक दूसरे को देखकर
व्यंग भरी हँसी हंसते हैं

बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का छत
अभी तक गीला है
माँ पिताजी रो रहे हैं---
            
◆ज्योति खरे

रविवार, जून 16, 2024

पिता

🔴
पिता
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अंधेरों को चीरते
सन्नाटे में अपने से ही बात करते
पिता
यह सोचते थे कि
उनकी आवाज़ 
कोई नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों के बीच में से निकलकर
बरसती बूंदों जैसी
इन क्षणों में पिता
व्यक्ति नहीं
समुंदर बन जाते थे

उम्र के साथ
बदलते रहे पिता
पर भीतर से कभी नहीं बदले पिता
क्योंकि
रिश्तों के अस्तित्व को
बचाने की ज़िद
उनके जिंदा रहने की वजह थी

पिता
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुंदर

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के ज़ेब में
रखने वाले
पिता
अमरत्व के वास्तविक
हक़दार थे

पिता
आज भी 
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल 
खटखटाते हैं----

◆ज्योति खरे