प्रारंभ में
एक दीपक जला
उजाला दूर दूर तक फैला
और भटकते अंधेरों से लड़ने लगा
संवेदनाओं के चंगुल में फंसा
जनमत के बाजार में
नीलाम हुआ
जूझता रहा आंधियों से
नहीं ख़त्म होने दी
अपनी,टिमटिमाहट
जूझता रहा आंधियों से
नहीं ख़त्म होने दी
अपनी,टिमटिमाहट
बारूद के फूलों की पंखुड़ियों पर
लिख रहा है
अपने होने का सच
दीपक
आज भी उजाले को
मुट्ठियों में भर भर कर
घर घर पहुंचा रहा है---
घर घर पहुंचा रहा है---
" ज्योति खरे "