स्वतंत्र भारत के प्राकृतिक वातावरण में हम बेरोक टोक सांस ले रहे हैं, पर एक वर्ग ऐसा है, जिसकी साँसों में आज भी नियंत्रण है.
ये वर्ग है हमारा "मजदूर"-
"दुनियां के मजदूरों एक हो" का नारा पूरी दुनियां में विख्यात है,क्या केवल नारों तक सीमित है मजदूर "कामरेड" और लाल सलाम जैसे शब्दों के बीच अरसे से घुला-मिला यह मजदूर.अपने आप को ही नहीं समझ पाया है कि वह वास्तव में क्या है.
सच तो ये है कि जिस तेजी से जनतांत्रिक व्यवस्था वाले हमारे देश में,मजदूरों के हितों का आन्दोलन चला उतनी ही तेजी से बिखर भी
गया,मजदूरों के कंधों से क्रांति लाने वाले हमारे नेता,आंदोलनकारी
अपने चरित्र से गिरे और धीरे धीरे उनके लक्ष्य भी बदलने लगे.
एकता का राग अलापते श्रमजीवियों के मठाधीश,नारे,हड़ताल,और जुलूसों की भीड़ में अपने आप को माला पहने, फोटो खिंचवाने की होड़ में जुटे रहे, और बेचारा मजदूर यह नहीं समझ पा आया कि हमारे नेता तो व्यक्तिगत सुधार में लगें हैं.
मजदूर तो केवल इतना समझता है कि हम जितनी माला अपने नेताओं को पहनायेंगे उससे दुगनी हमारी तरक्की होगी, रोटियों की संख्या बढ़ेगी.
उसे क्या पता कि वह कितना भोला है
लच्छेदार बातों में उलझ रहा है और अपने हिस्से की रोटियां उन्हें दे रहा है.
"मई दिवस" मेहनत करने वाले,
कामगारों के अधिकारों के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है.
इसका अपना एक ऐतिहासिक महत्व है, यह एक विचारधारा है.
सभ्य समाज का इतिहास अपनी तरह से वर्गों की उपज है,
यही उपज वर्तमान में शोषक के रूप में उभरी है.
जब सामंती समाज था तो जमीन थोड़े से लोगों के कब्जे में थी,
इस जमीन पर काम करने वाले अपने मालिक की आय बढ़ाया करते थे.
"जमीन के गुलामों"का यह वर्ग अपने बुनियादी हकों से वंचित था,
साथ ही साथ इन पर जुल्म होते थे.धीरे धीरे विज्ञानं ने तरक्की की,
कल-कारखाना समाज की स्थापना हुई, इस बदलाव से पूंजीवादी विचारधारा वाले ही लाभ ले सके.
गुलाम गुलाम ही रहें,
फर्क सिर्फ इतना हुआ की दास प्रथा से थोड़ा मुक्त हुये और
"कामगार" कहलाने लगे,पर शोषण और अत्याचार से मुक्ति नहीं मिल पायी आज तक.
1789 में फ़्रांस की क्रांति में पहली बार इस वर्ग ने असंतोष प्रकट
किया.
18 वीं शताब्दी के समाप्त होते होते तक कल कारखाना समाज का ढांचा तेजी से उभरने लगा था,
फ़्रांस की क्रांति सिर्फ इसलिये महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इसने राज्य शक्ति को समाप्त किया,बल्कि इस क्रांति का महत्व इसलिये है कि पहली बार सदियों से शोषित वर्ग ने एक करवट ली और इसी करवट ने एक इतिहास बनाया.
औद्योगिक समाज में पनपती पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरों ने पहली बार अपना असंतोष जाहिर किया.
मजदूर शोषण की जटिल गिरफ्त में था ,इससे मुक्त होना चाहता था,धीरे-धीरे इस मुक्त होने की इच्छा को संगठित किया,जो विरोध फ़्रांस की
क्रांति के समय फूटा था,उसने एक विचारधारा का रूप लिया,
इस विचारधारा का नाम रखा "मार्क्सवाद"
"मार्क्स"ने पहली बार मजदूरों की भूमिका और इतिहास पर एक नयी नजर डाली, इसका आंकलन किया और एक नारा दिया
"दुनियां के मजदूरों एक हो"
उन्होने प्रथम इंटरनेशनल
मजदूर संघ की स्थापना की.
1879 की पहली शताब्दी के मौके पर मजदूरों के हकों की पहली लड़ाई पर उसकी याद में "एक मई"को अंतराष्ट्रीय "श्रमिक दिवस" के रूप में
मनाने की घोषणा की गयी.
इस व्यवस्था से मजदूर और सचेत हुये, राजनैतिक पार्टियां मजदूरों के हितों की चर्चा करने लगीं
"हड़ताल" एक नया शब्द जुड़ा.
यह इतिहास है.पर वास्तविकता यह है कि आज भी "मजदूर "अपने हक़ के लिये लड़ रहा है.
क्या कभी मजदूर शोषण से मुक्त हो पायेगा.
भौतिकवादी युग में सभी की आवश्यकतायें बढ़ती जा रहीं हैं,
पर बेचारा मजदूर ज्यों का त्यों है,
न वह भौतिकता को समझ पा रहा,
न ही इस ओर ध्यान दे पा रहा है.
"सर्वहारा"वर्ग की बात करना सहज है पर सहज नहीं है इनके
ऊपर हो रहे शोषण से मुक्त कराना.
नारे,जलशों,जुलूसों से इनके खिलाफ हो रहे शोषण को उजागर तो किया जाता है, बड़े-बड़े अधिवेशनों में इनकी तरक्की की चर्चा होती है पर यह केवल औपचारिकता है,यह महज
चाय,नाश्ते और डिनर में समाप्त हो जाती है.
निजी स्वामित्व की आकांक्षाओं,
गतिविधियों,विचारधाराओं, और क्षमताओं का अब अधिक जोर है.
अपने अपने दबदबे,अपने अपने
व्यक्तित्व को शिखर पर ले जाने की कार्यप्रणाली ज्यादा सक्रिय है,
यही सक्रियता अब वर्ग विरोधों में बंट गयी है.अब हम जिस समाज में रहते हैं, उसके दो वर्ग हो गये हैं एक "धनपति"और दूसरा"गरीब"--शोषक और मजदूर यह ध्रुवीकरण पूंजीवादी
समाज में विशेष रूप से बढ़ता जा रहा है, व्यक्तिवाद और
अहंवाद अपनी चरम सीमा पर है.
विकास के नाम पर नेता या पूंजीपति इसका लाभ ले रहें हैं.जिनके विकास के लिये कार्यक्रम होता है,
वे इस विकास के मायने से वाकिफ भी नहीं हो पाते.
सड़क और बिल्डिंग बनाने में अपना पसीना टपकाने वाले मजदूर न कभी महानगरीय सड़क पर चल पाये और न ही पक्के मकान में रह पाये
वेतन और सुविधाओं के मामले में मजदूर आर्थिक प्रक्रिया के कुचक्र में फंस हुआ है,वह अपने अधिकारों से भी वंचित है.
"रोटी" के चक्कर में उसे अपनी तमाम योग्यताओं और प्रतिभा की बलि चढ़ाना पड़ती है.
आधुनिकीकरण और कम्प्यूटरीकरण के इस युग में सामाजिक और मानवीय मान्यतायें खोखली हो गयीं हैं.आर्थिक नीतियां भी प्रशासनिक सेवाओं के इर्द-गिर्द घूम रहीं हैं,
मजदूरों के वेतन की सारी परिभाषायें
जर्जर हो गयी हैं.
मजदूरों के विकास की सारी बातें,
सरकारी फाइलों में लिखी हैं,
इन फाइलों को दीमक खा रही है.
सारे के सारे उद्देश्य बेजान हो गयें हैं.
कई दशकों से मजदूरों का शोषण हो रहा है इस शोषण को सरकार और राज्य सरकारें जानती हैं.
पर मजदूरों के हित में कुछ भी नहीं करना चाहती हैं.
भारत में लगभग चार करोड़ मजदूर हैं जिनके बल पर ही देश
का विकास होता है,कल कारखाने चलते हैं बडी बडी ईमारतें बनती हैं,
इनके ही पसीना बहाने से पैसा आता है, जो पूंजपतियों के जेबों में जाता है. सरकार मजदूरों के संबंध में सब जानती है पर अनदेखा करती है
काश सरकार ने कभी इनकी सुविधा का ध्यान रखा होता तो आज जो
कोरोना दौर में मजदूरों की फजीहत हो रही वह न होती.
मजदूर सड़क पर न आते, भूखे नहीं रहते अगर ईमानदारी की बात कही जाय तो इन प्रताड़ित मजदूरों ने
सरकार और राज्य सरकारों की कलई खोल दी है,और देश दुनियां को दिखा दिया कि देख लो भारत का वास्तविक सच.
नंगी जमीन पर सोने वालों को इंतजार है एक सुखद सपने का.
"मजदूर दिवस"हर वर्ष आता है,
चला जाता है, मजदूर वहीँ खड़ा है
जहां से चला था.
मजदूर तो एक चाबीदार खिलौना है,
जिसके साथ खेला जाता है.
समय ने करवट बदली बदली है
अब मजदूरों को फिर से एक जुट होना चाहिए, अपने संघर्षों पर विजय पाने के लिए नये सिरे से लड़ना चाहिए, अपने संस्कारों,
अपने परिवार के चरमराये संघर्ष को
चुपचाप अपनी टपरिया में सुलाना
नहीं चाहिए बल्कि अपने हक की आवाज को बुलंद करना चाहिए-
मजदूरों को लाल सलाम--
मजदूर एकता जिन्दाबाद--
"ज्योति खरे"