रविवार, दिसंबर 31, 2017

वादों का मफ़लर

लपेटकर रख लिया है
तुम्हारे
ऊनी आसमानी शाल में
पिछला साल

उम्मीद थी
कि, बर्फ़ीली हवाओं में
ओढ़ कर बैठेंगें
और जाती हुई नमी को
एक दूसरे की साँसों से गर्म करेंगे

कल्पनायें खुरदुरी जमीन पर
कहाँ दौड़ पाती हैं

तुम बुनती रही सपनों का शाल
और दिल्ली दरबार में रची जा रही थी
रुपये को, धर्म को, ईमान को
मार डालने की साजिशें

ऐसे खतरनाक समय में
प्रेम कहाँ जीवित रह पाता

जब कभी बहुत बैचेनियों से गुजरूँगा
तो ओढ़ लूंगा
तुम्हारा आसमानी शाल
और तुम भी
अब कभी बहुत घबड़ाओ
तो लपेट लेना
मेरा दिया हुआ वादों का मफ़लर----

"ज्योति खरे"

शुक्रवार, दिसंबर 15, 2017

प्रेम का पुनः अंकुरण

कुछ देर
मेरे पास भी बैठ लो
धूप में
पहले जैसे

जब खनकती चूड़ियों में
समाया रहता था इंद्रधनुष
मौन हो जाती थी पायल
और तुम
अपनी हथेली में
मेरी हथेली को रख
बोने लगती थी
प्रेम के बीज

अब जब भी बैठती हो मेरे पास
धूप में
छीलती हो मटर
तोड़ती हो मैथी की भाजी
या किसती हो गाजर

मौजूदा जीवन में
खुरदुरा हो गया है
तुम्हारा प्रेम
और मेरे प्रेम में लग गयी है
फफूंद

सुनो
अपनी अपनी स्मृतियों को
बांह में भरकर सोते हैं
शायद
बोया हुआ प्रेम का बीज
सुबह अंकुरित मिले -----

"ज्योति खरे"

सोमवार, नवंबर 13, 2017

दुख पराये नहीं होते

दुख पराये नहीं होते
बहुत खास होते हैं
अपनों से भी अधिक
जैसे
पुरुष के लिए प्रेमिका
स्त्री के लिए प्रेमी

प्रेम का रस
खट्टा मीठा होता है

एक चींटी
अपने सिर पर
अपने वजन से भी अधिक
बोझ रखकर जब दुखों से लड़ती
पहाड़ पर चढ़ कर
जीत की घोषणा करती है
विजेता उसी दिन बनती है----

" ज्योति खरे "

शनिवार, अक्टूबर 28, 2017

कागज में लिखा चाँद

कुछ कागज में लिखी स्मृतियाँ
कुछ में सपने
कुछ में सुख
कुछ में दुख
कुछ में लिखा चाँद

चांद रोटियों की शक्ल में ढल गया
भूख और पेट की बहस में
सपनो की सरसराती आवाजें
जंग लगे आटे के कनस्तर में समा गयीं

तुम्हारे खामोश शब्द
समुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और मैं
प्रेम को बसाने की जिद में
बनाता रहा मिट्टी का घरोंदा

एक दिन तुम
शर्मीली ठंड में
अपने दुपट्टे में बांधकर जहरीला वातावरण
उतर आयी थी
मेरी खपरीली छत पर
चाँद बनकर ---

# ज्योति खरे

गुरुवार, अक्टूबर 05, 2017

शरद का चांद

शरद का चांद
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वर्षों से सम्हाले
प्रेम के खुरदुरेपन को
खरोंच डाला है
सपनों ने
दीवाल पर चिपका रखी हैं
खींचकर अनगिनत फ़ोटो
चांद की
और चांद है कि
आसमान से उतरकर
खरगोश की तरह
उचक रहा है इधर उधर

फक्क सुफेद चांद
जब भी उछलकर
तुम्हारी गोद में गया
तुमने झिड़क दिया

मैं हमेशा जमीन पर
उचकते खरगोश को सहलाता रहा
खरोंच और चोट से बचाता रहा
और समझाता रहा तुम्हें
यह खरगोश प्रेम का प्रतीक है
तुम नकारती रही
तुम्हें तो बस आसमान वाला
चांद चाहिए

कभी
जमीन पर रहने वाले चांद को
गोद में बैठाकर
प्रेम से
उसकी देह पर
उंगलियां तो फेरो

शरद का चांद
प्रेम में तरबतर हो जाएगा
तुम्हारे आँचल में
सदैव खिला रहेगा -----

"ज्योति खरे"

शनिवार, जुलाई 01, 2017

अम्मा का आज जन्मदिन है

पापा का पत्र अम्मा के नाम 


 पम्मी, आज मुझे जीवन के बारे में सोचने का मौका मिला है, मुझे पुराने दिन याद आ रहें हैं,गरीबी के दिन याद आ रहें हैं,वह दिन भी याद आ रहें हैं, जब तुम मेरी पत्नी बनकर आयी थी.
आज में दुबारा खुश हूँ,रात को सोया हूँ या जागा हूँ, कह नहीं सकता, या कोई सपना देखा है यह भी  नहीं बता सकता,पर इतना जानता हूँ कि जबलपुर फूटाताल से शुरू होकर अब तक की बीती हुई यांदें जो दुबारा नहीं जी जा सकतीं,उनमें  जी रहा हूँ.
आज ऊपर वाला दांत टूट गया, मुझे वह दिन याद आ गया, जब मैं और तुम छोटे थे,तुम लईया लेकर आ रही थी मैंने छीनने की कोशिश की थी, तुमने मुझे लात मारकर मुंह के बल गिरा दिया था,दांत पीला पड गया था,आज वही दांत गिर गया.बाद में पता चला था  उस दिन तुम्हारा जन्मदिन था.
मेरी और तुम्हारी उम्र जैसे-जैसे बढती गयी,तुममें और मुझमे प्यार भी बढ़ता गया.
एक दिन मैं अपने कुछ दोस्तों के साथ तुम्हारे दरवाजे तुमसे ब्याह रचाने आ गया,वह क्षण याद आ रहा है जब तुम्हारे भाई ने मेरे सीने में बंदूक रख दी थी और तुमने चीख कर कहा था कि, मैं इस लड़के से शादी करुँगी, मैं तुम्हें अपनी दुल्हन बना कर ले आया,सामाजिकता से गिरे नहीं क्योंकि तुम और मैं
एक ही जाती के थे पर हुआ तो प्रेम विवाह ही था.
मैंने अपने प्रथम मिलन पर तुम्हें एक तस्वीर बना कर दी थी " परिचय का प्रथम क्षण" क्योंकि मैं एक चित्रकार था और यही मेरी रोजी रोटी थी
आज जी भरकर रोया भी हूँ और हंसा भी हूँ क्योंकि अपनी बेवकूफियों की वजह से अपने सुखों को गंवाता रहा. सम्पूर्ण जिन्दगी की यादें दुहरा रहा हूँ सोच रहा हूँ कि कुछ पल उसी जगह पर जाकर बिताऊं जहां तुमने और मैंने प्रेम के बीज बोये थे, बदल तो सब कुछ गया होगा पर नहीं बदली होंगीं सड़कें.
इस जेल ने नयी दिशा दी हैं,नयी आशाएं दी हैं. 


बच्चे बड़े और समझदार हो गएँ हैं सब तुम्हारे ऊपर गये हैं, स्वभाव और कर्म से 
मरने से पहले एक बार तुम्हारी गोद में सर रखकर बहुत देर तक रोना चाहता हूँ.
एक बात बोलूं ---
सुंदर तो तुम जब भी थी 
आज भी हो ---
सेन्ट्रल जेल 
जबलपुर 
15 मई 1974  

शनिवार, जून 17, 2017

पिता -----



अँधेरे को चीरते
सन्नाटे में 
अपने से ही बात करते पिता 
यह सोचते हैं कि कोई उनकी आवाज नहीं सुन रहा होगा 

मैं सुनता हूँ 

कांच के चटकटने सी 
ओस के टपकने सी 
पतली शाखाँओं से दुखों को तोड़ने सी 
सूरज के साथ सुख के आगमन सी 
इन क्षणों में पिता 
व्यक्ति नहीं समुद्र बन जाते हैं 

उम्र के साथ दिशा और दशा बदल जाती है 
नहीं बदलते पिता 
क्योंकि 
उनके जिन्दा रहने का कारण है 
आंसुओं को अपने भीतर रखने की जिद 

पिता 
जीवन के किनारे खड़े होकर 
नहीं सूखने देते कामनाओं का जंगल 
उड़ेलते रहते हैं अपने भीतर का समुद्र 

इसीलिए 
आंसुओं को समेटकर 
अपने कुर्ते में रखने वाले पिता 
अमरत्व के वास्तविक हकदार हैं ------

" ज्योति खरे "

सोमवार, जून 05, 2017

एक हरे पेड़ की तलाश


🔴🌴

निकले थे
गमझे में कुछ जरुरी सामान बांध कर  
किसी पुराने पेड़ के नीचे बैठकर
बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
गक्क्ड़ भरता बनायेंगे
तपती दोपहर की छाँव में बैठकर
भरपेट खायेंगे

सूखे और विकलांग पेड़ों के पास से
एक हरे पेड़ की तलाश में
भटकते रहे

सोचा हुआ कहाँ पूरा हो पाता है

सच तो यह है कि
हमने
घर के भीतर से
निकलने और लौटने का रास्ता
अपनों को ही काट कर बनाया है ----

"ज्योति खरे"