धुंधली आंखें भी
पहचान लेती हैं
भदरंग चेहरे
सुना है
इन चेहरों में
मेरा चेहरा भी दिखता है--
गुम गयी है
व्यवहार की किताब
शहर में
सुना है
गांव के कच्चे घरों में
अपनापन
आज भी रिसता है--
इस अंधेरे दौर में
जला कर रख देती है
बूढ़ी दादी
लालटेन
सुना है
बूढ़ा धुआं
दर्द अपना लिखता है--
नीम बरगद के भरोसे
झूलती हुई झूला
उड़ रही है आकाश में
गांव की खिलखिलाती
लड़कियाँ
सुना है
प्यार की चुनरी के पीछे
चांद
आकर छिपता है--
"ज्योति खरे"
2 टिप्पणियां:
बेहद भावपूर्ण रचना, आभार.
वाह हमेशा की तरह सुन्दर भाव।
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