गुलाब
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कांटेदार तनों में
खिलते ही
सम्मोहित कर देंने वाले
तुम्हारे रंग
और
देह से उड़ती जादुई
सुगंध को सूंघने
भौंरों का
लग जाता है मजमा
सुखी आंखों से
टपकने लगता है
महुए का रस
जब
तने से टूटकर
प्रेम में सनी
हथेलियों में तुम्हें
रख दिया जाता है
उन हथेलियों को
क्या मालूम
गुलाब की पैदाईश
बीज से नहीं
कांटेदार कलम को
रोपकर होती है
गुलाबों के
सम्मोहन में बंधा यह प्रेम
एक दिन
सूख जाता है
प्रेम को
गुलाब नहीं
गुलाब का
बीज चाहिए----
"ज्योति खरे"
19 टिप्पणियां:
वाह।
व्यथा गुलाब की
प्रेम को
गुलाब नहीं
गुलाब का
बीज चाहिए----
गुलाब के बहाने प्रेम का लाज़वाब दर्शन !!!
लाजवाब हमेशा की तरह
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-02-2021) को "बढ़ो प्रणय की राह" (चर्चा अंक- 3973) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत आभार आपका
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ज्योति जी जो कुछ सोचने पर विवश करती है ।
बहुत ही सुंदर
लाजवाब ! प्रेम को परिभाषित करती सुन्दर कृति..
प्रेम को
गुलाब नहीं
गुलाब का
बीज चाहिए----
लाजवाब ...अत्यंत सुन्दर और गहन भावाभिव्यक्ति ।
प्रेम को
गुलाब नहीं
गुलाब का
बीज चाहिए
बहुत अच्छी पंक्तियां...
सुंदर सृजन
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
वाह सुंदर सृजन
बेहद खूबसूरत अहसास... एकदम जुदा सा ।
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