स्कूल की
टाटपट्टी में बैठकर
स्लेट में
खड़िया से लिखकर सीखा
भविष्य का पहला पाठ
फिर प्रारंभ हुआ
अपने आप को
समझने का दूसरा पाठ
तीसरे पाठ में
समझने लगी
दुनियादारी
इस शालीन दौर से गुजरते हुए
मुझे भी हुआ प्रेम
शायद उसे भी हुआ होगा
तभी तो
मुझसे कहकर गया था
जा रहा हूँ शहर
जीने का साधन जुटाने
लौटकर आऊंगा
तुम्हें लेने
शिकायत नहीं है मुझे
उससे
कि वह लौटा नहीं
फैसला मेरे हाथ में है
कि,किस तरह जीवन बिताना है
छुपकर रोते हुए
या खिलखिलाकर
खुरदुरे रास्तों को पूर कर
हांथों की लकीरों को
रोज सुबह
माथे पर फेर लेती हूं
और शाम होते ही
बांस की खपच्चियों से
जड़ी खिड़की पर
खड़ी हो जाती हूँ
यादों में
नया रंग भरने
अपलक आंखों के
गिरते पानी से
एक दिन
धुल जाएंगे
सारे प्रतिबिम्ब
फिर नए सिरे से लिखूंगी
खड़िया से
स्लेट पर
इंतजार---
13 टिप्पणियां:
वाह। सुन्दर सृजन।
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१५-०४ -२०२२ ) को
'तुम्हें छू कर, गीतों का अंकुर फिर उगाना है'(चर्चा अंक -४४०१) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
मन को छूती बहुत सुंदर रचना ।
अपलक आंखों के
गिरते पानी से
एक दिन
धुल जाएंगे
सारे प्रतिबिम्ब
फिर नए सिरे से लिखूंगी
खड़िया से
स्लेट पर
इंतजार---
बहुत खूब, हृदय स्पर्शी सृजन सर,सादर नमस्कार 🙏
बहुत सुन्दर सृजन
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
Bahut hi Shandar Rachna
नये सिरे से फिर-फिर लिखना ही तो शायद ज़िंदगी है। बहुत ही सुन्दर लिखा है...
आभार आपका
बेहतरीन प्रस्तुति
ये सच है कि इंसान जैसा चाहे वैसा जी सकता है सबकुछ उसके हाथ में होता है
बहुत सुन्दर
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