गुरुवार, अगस्त 08, 2024

तुम्हारी खिलखिलाहट में

तुम्हारी खिलखिलाहट में
*******************
यह बात क्यों नहीं मानती कि
बिना आभूषण
बिना श्रृंगार के
वैसे ही लगती हो
जैसी की तुम हो

शांत,निर्मल
बहती नदी सी
जिसकी कगार पर आकर
कहां ठहर पाते हैं
मान,अपमान,माया
तुम्हारी देह में समा जाना चाहते हैं
जीवन के सारे द्वन्द 

प्रेम का बीजमंत्र हो
साँझ की आरती हो
क्योंकि तुम
तुम ही हो

अब ध्यान से सुनो 
मेरी बात

मैं
तुम्हारी खिलखिलाहट में
अपनी खिलखिलाहट
मिलाना चाहता हूं

तुम्हारे स्पर्श की
नयी व्याख्या 
लिखना चाहता हूं

अब खिलखिलाना बंद करो
और मुझे
लिखने दो----

◆ज्योति खरे

7 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर

शुभा ने कहा…

वाह! बेहतरीन सृजन!

Prakash Sah ने कहा…

बहुत सुंदर। प्रेम...

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर

Anita ने कहा…

सुंदर प्रेम कविता

जितेन्द्र माथुर ने कहा…

बहुत खूब!