थिरकेगा पूरा गांव
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तुम्हारी चूड़ियों की
पायलों की
तभी आती है आवाज़
जब में जुटा रहता हूं
काम पर
तुम्हारी आहटें
मेरे चारों तरफ
सुगंध का जाल बनाती है
मैं इस जाल में उलझकर
पुकारता हूं तुम्हें
मजदूर हूँ
मजदूरी करने दो
रोटी के जुगाड़ में
खपने दो दिनभर
समय को साधने की फिराक में
लड़ने दो सूरज से
चांद के साथ विचरने दो
चांदनी के आंचल तले
बुनने दो सपनें
समय की नज़ाकत को समझो
चूड़ियों को
पायलों को
बेवजह मत खनकाओ
मुझे जीतने तो दो
रोटी,घर और उजाला
चाहता हूं
मेरे साथ
मेरे मजदूर भाई भी
जीत लें
रोटी,घर और उजाला
जिस दिन जीत लेंगे उजाला
उस दिन
घुंघुरुदार पायलें
देहरी देहरी बजेंगी
चूड़ियों की खनकदार हंसी
अच्छी लगेंगीे
चाँद बजायेगा बांसुरी
तबले पर थाप देगा सूरज
चांदनी की जुल्फों से
टपकेगी शबनम
फिर तुम नाचोगी
मैं गाऊंगा
और थिरकेगा पूरा गांव
◆ज्योति खरे
7 टिप्पणियां:
कुछ ऐसा कीजिए देश थिरकने लगे | :) अदभुद
अतिमनमोहक, सुंदर भावों से सजी लाज़़वाब रचना सर।
प्रणाम सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ अक्टूबर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
वाह ! सुंदर भावपूर्ण रचना और चित्र
वाह! बेहतरीन!
मुझे जीतने तो दो
रोटी,घर और उजाला
वाह!!!
अद्भुत👌👌👌🙏🙏
ऐसा ही हो ! हम सब अपनी जगह अपना काम करते रहें तो ऐसा दिन भी आएगा अवश्य । इस आशा का अभिनंदन !
हर बार की तरह कमाल की संवेदनशील रचना ...
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