गुरुवार, जून 27, 2024

चिमटियों में लटके किरदार

चिमटियों में लटके किरदार
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बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का आंगन
अभी तक गीला है
माँ के आंसू बहे हैं

कितनी मुश्किलों से खरीदा था
ईंट,सीमेंट,रेत
जिस साल पिताजी बेच कर आये थे
पुश्तैनी खेत
सोचा था
शहर के पक्के घर में
सब मिलकर हंसी ठहाके लगायेंगे 
तीज-त्यौहार में
सजधज कर 
मालपुआ खायेंगे

घर बनते ही सबने
आँगन और छत पर
गाड़ ली हैं अपनी अपनी बल्लियाँ
बांध रखे हैं अलग अलग तार
तार पर फेले सूख रहे हैं
चिमटियों में लटके
रंग बिरंगे किरदार

इतिहास सा लगता है
कि,कभी चूल्हे में सिंकी थी रोटियां
कांसे की बटलोई में बनी थी
राहर की दाल
बस याद है
आया था रंगीन टीवी जिस दिन
करधन,टोडर,हंसली
बिकी थी उस दिन

बर्षों बीत गये
चौके में बैठकर
नहीं खायी बासी कढ़ी और पूड़ी
बेसन के सेव और गुड़ की बूंदी
अब तो हर साल
बडी़ और बिजौरे में
लग जाती है फफूंद
सूख जाता है
अचार में तेल

औपचारिकता निभाने
दरवाजे खुले रखते हैं
एक दूसरे को देखकर
व्यंग भरी हँसी हंसते हैं

बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का छत
अभी तक गीला है
माँ पिताजी रो रहे हैं---
            
◆ज्योति खरे

रविवार, जून 16, 2024

पिता

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पिता
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अंधेरों को चीरते
सन्नाटे में अपने से ही बात करते
पिता
यह सोचते थे कि
उनकी आवाज़ 
कोई नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों के बीच में से निकलकर
बरसती बूंदों जैसी
इन क्षणों में पिता
व्यक्ति नहीं
समुंदर बन जाते थे

उम्र के साथ
बदलते रहे पिता
पर भीतर से कभी नहीं बदले पिता
क्योंकि
रिश्तों के अस्तित्व को
बचाने की ज़िद
उनके जिंदा रहने की वजह थी

पिता
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुंदर

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के ज़ेब में
रखने वाले
पिता
अमरत्व के वास्तविक
हक़दार थे

पिता
आज भी 
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल 
खटखटाते हैं----

◆ज्योति खरे