रविवार, दिसंबर 29, 2019

जिन्दा रहने की वजह

जिन्दा रहने की वजह
*****************
सम्हाल कर रखा है
तुम्हारे वादों का
दिया हुआ
ब्राउन रंग का मफलर
बांध लेता हूँ
जब कभी
तब कान में फुसफुसाकर
कहती है ठंड
कि, आज बहुत ठंड है

इन दिनों
उबलते देश में
गिर रही है बर्फ
दौड़ रही है शीत लहर
जानता हूँ
तुम्हारी भी तासीर
बहुत गरम है
पर
मेरी ठंडी यादों को
गर्माहट देना
ओढ़ लेना
मेरा दिया हुआ
ऊनी आसमानी शाल

बहकते, झुंझलाते
और भटकते इस दौर में
प्रेम
जिन्दा रहने की
वजह बनेगा-----

"ज्योति खरे"

गुरुवार, दिसंबर 19, 2019

यूकेलिप्टस

यूकेलिप्टस 
*********
एक दिन तुम और मैं 
शाम को टहलते 
उंगलियां फसाये 
उंगलियों में 
निकल गये शहर के बाहर--

तुमने पूछा 
क्या होता है शिलालेख 
मैने निकाली तुम्हारे बालों से 
हेयरपिन
लिखा यूकेलिप्टस के तने पर 
तुम्हारा नाम----

तुमने फिर पूछा 
इतिहास क्या होता है 
मैने चूम लिया तुम्हारा माथा--

खो गये हम 
अजंता की गुफाओं में 
थिरकने लगे 
खजुराहो के मंदिर में 
लिखते रहे उंगलियों से 
शिलालेख 
बनाते रहे इतिहास--

आ गये अपनी जमीन पर 
चेतना की सतह पर 
अस्तित्व के मौजूदा घर पर--

घर आकर देखा था दर्पण 
उभरी थी मेरे चेहरे पर 
लिपिस्टिक से बनी लकीरें 
मेरा चेहरा शिलालेख हो गया था 
बैल्बट्स की मैरुन बिंदी 
चिपक आयी थी 
मेरी फटी कालर में 
इतिहास का कोई घटना चक्र बनकर--

अब खोज रहा हूं इतिहास 
पढ़ना चाहता हूं शिलालेख--

अकेला खड़ा हूं
जहां बनाया था इतिहास  
लिखा था शिलालेख 
इस जमीन पर 
खोज रहा हूं ऐतिहासिक क्षण--

लोग कहते हैं 
यूकेलिप्टस पी जाता है 
सतह तक का पानी 
सुखा देता है जमीन की उर्वरा--

शायद यही हुआ है 
मिट गया शिलालेख 
खो गया इतिहास--

अब शायद  
फिर लिख सकेंगे इतिहास 
अपनी जमीन का--

क्या तुम भी कभी 
देखती हो मुझे 
अपने मौजूदा जीवन के आईने में 
जब कभी तुम्हारी 
बिंदी,लिपिस्टिक 
छूट जाती है 
इतिहास होते क्षणों में---

 "ज्योति खरे" 

मंगलवार, अक्तूबर 22, 2019

आगे बढ़ो

आगे बढ़ो
********
कामरेड
तुम्हारी भीतरी चिंता
तुम्हारे चेहरे पर उभर आयी है
तुम्हारी लाल आँखों से
साफ़ झलकता है
कि,तुम
उदासीन लोगों को
जगाने में जुटे हो

आगे बढ़ो
हम तुम्हारे साथ हैं

मसीहा सूली पर चढ़ा दिये गए
गौतम ने घर त्याग दिया
महावीर अहिंसा की खोज में भटकते रहे
गांधी को गोली मार दी गयी

संवेदना की जमीन पर
कोई नया वृक्ष नहीं पनपा
क्योंकि
संवेदना की जमीन पर
नयी संस्कृति
बंदूक पकड़े खड़ी है

बंजर और दरकी जमीन पर
तुम
नये अंकुर
उपजाने में जुटे हो
यह जटिल और जुझारू काम है
जुटे रहो

आगे बढ़ो
हम तुम्हारे साथ हैं

जो लोग
संगीतबद्ध जागरण में बैठकर
चिंता व्यक्त करते हैं
वही आराम से सोते हैं
इन्हें सोने दो

तुम्हारी चिंता
महानगरीय सभ्यता
और बाजारवाद पर नहीं
मजदूरों की रोटियों की है
उनके जीवन स्तर की है

तुम अपनी छाती पर
वजनदार पत्थर बांधकर
चल रहे हो उमंग और उत्साह के साथ
मजदूरों का हक़ दिलाने

कामरेड आगे बढ़ो
हम तुम्हारे साथ हैं
तुम्हें लाल सलाम
लाल सलाम
इंकलाब जिंदाबाद
जिंदाबाद

"ज्योति खरे"

रविवार, अक्तूबर 13, 2019

तुम्हारी मुठ्ठी में कैद है तुम्हारा चांद

तुम्हारी मुठ्ठी में कैद है-तुम्हारा चाँद
****************************
चाँद को तो
उसी दिन रख दिया था
तुम्हारी हथेली पर
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने

सूरज से चमकते तुम्हारे गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे मैने
कई कई चाँद

चाँद को तो
उसी दिन रख दिया था
तुम्हारी हथेली पर
जिस दिन
विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुनरी

और अब
क्यों देखती हो
प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
चाँद----

तुम्हारी मुट्ठी में तो कैद है
तुम्हारा अपना चाँद----

"ज्योति खरे

बुधवार, अक्तूबर 09, 2019

रावण जला आये बंधु

रावण जला आये बंधु
*****************
कागज
लकड़ी
जूट और मिट्टी से बना
नकली रावण
जला आये बंधु !

जो लोग
सहेजकर सुरक्षित रखे हैं
शातिरानापन
गोटीबाजी
दोगलापन
इसे जलाना भूल गये बंधु !

कल से फिर
पैदा होने लगेंगे
और और रावण बंधु !

जलाना था कुछ
जला आये और कुछ
जीवित रह गया रावण

अब लड़ते रहना
जब तक
भीड़ भरे मैदान में
स्वयं न जल जाओ बंधु !

"ज्योति खरे"

सोमवार, अक्तूबर 07, 2019

फूलवाली

फूल वाली--
*********
सींचकर आंख की नमी से
रखती है तरोताजा
अपने रंगीन फूल 

संवारती है
टूटे आईने में देखकर
कई कई आंखों से
खरोंचा गया चेहरा
जानती है
सुंदर फूल
खिले ही अच्छे लगते हैं

मंदिर की सीढियां
उतरते चढ़ते हांफते
निवेदन करती है
बाबू जी, भैया जी, बहन जी, दीदी
सुंदर फूल ले लो

जब कोई खरीदता है फूल
चेहरे पर मासूम मुस्कान लाकर
मनोकामनाओं की फूंक मारते
प्रेम के पत्तों में लपेटकर
बेच देती है
अपने फूल

भरती है राहत की सांस
चढ़ा देती है
देवी के चरणों में
बचा हुआ आखिरी फूल

कि, शायद कोई देवता 
चुन ले 
कांटों में खिले इस फूल को 
खींच दे हाथ में
सुगंधित प्यार की लकीर
 
मुरझाये फूल में
जान लौट आयेगी-------

"ज्योति खरे"

शुक्रवार, अक्तूबर 04, 2019

स्त्रियां जानती हैं

स्त्रियां जानती हैं
*************
स्त्री को
बचा पाने की
जुगत में जुटे
पुरुषों की बहस
स्त्री की देह से प्रारंभ होकर
स्त्री की देह में ही
हो जाती है समाप्त ---

स्त्रियां
पुरषों को बचा पाने की जुगत के बावजूद भी
सजती, संवरती हैं
रखती हैं घर को व्यवस्थित

स्त्रियां जानती हैं
पुरुषों के ह्रदय
स्त्रियों की धड़कनों से
धड़कते हैं ---

पुरुषों की आँखें
नहीं देख पाती
स्त्री की देह में एक स्त्री
स्त्रियों की आँखें 
देखती हैं
समूची श्रृष्टि -----

"ज्योति खरे"

सोमवार, सितंबर 30, 2019

वृद्बाश्रम में

वृद्धाश्रम में
**********
अच्छे नर्सरी स्कूल में
बच्चों के दाखिले के लिए
सिफारिश का इंतजाम
पहले से किया जाने लगता है
क्यों कि बच्चे
भविष्य की उम्मीद होते हैं

इस दौडा़ भागी में
बूढे मां बाप का तखत
टीन का पुराना संदूक
भगवान का आसन
कांसे का लोटा
लाठी, छाता
चमड़े का बैग
जिसमें पिता के पुराने कागजात रहते हैं
अम्मा की कत्थई रग की पेटी
जो मायके से लायी थी
चीप से बनी खुली अलमारी में
रख दी जाती हैं
दिनभर इस काम को निहारते
पिता और अम्मा सोचते हैं
शायद घर को
और सजाया संवारा जा रहा है

शाम को
गिलकी की भजिया और
सूजी का हलुआ
परोसते समय
कह दिया जाता है
अब आप लोग
पीछे वाले
कमरे में रहेंगे

बेटा अब स्कूल जायेगा
शाम को बाहर वाले कमरे में
वह टियूशन पढ़ेगा

बेटे के भविष्य को बनाने
बूढ़ों को
पीछे घसीट कर डाल दिया जाता है

वृद्धाश्रम में
बूढ़ों को रखने की
होड़ सी मची है
बेटा शाम को लौटते समय
एक फार्म ले आया है

पिता
पिता ही होता है
वे आज खाने की मेज पर नहीं बैठे
भीतर बसी
चुप्पियों को तोड़ते बोले

घर में जगह नहीं बची
वृद्धाश्रम में
बची है
तुम्हें तुम्हारे
सुख की हंसी की शुभकामनाएं
मैं अपने साथ
अपने सपनों को ले जाउंगा
वृद्धाश्रम के
खुरदुरे आंगन में
अपनों के साथ
रेत का घरौंदा बनाउंगा-----

"ज्योति खरे"

बुधवार, सितंबर 18, 2019

इरादे


अपने इरादों को
तुमने ही दो भागों में बांटा था
अपने हिस्से के इरादे को
तुम अपने दुपट्टे में बांधकर
ले गयीं थी
यह कहकर
मैं अपने इरादे पर कायम रहूंगी
इसे पूरा करुँगी ---

मैं भी अपने हिस्से का इरादा
लेकर चल दिया था
जो आज भी
मेरे सीने में जिंदा है

शायद तुम ही
अपने इरादों से बधें दुपट्टे को
पुराने जंग लगे संदूक में रख कर
भूल गयी थी

अब अपने इरादों का दुपट्टा ओढ़कर
घर से बाहर निकलो
मैं सड़क पर
साइकिल लिए खड़ा हूँ
तुम्हारे पीछे बैठते ही
मेरे पाँव
इरादों के पैडिल
तेज गति से घुमाने लगेंगे

दूर बहुत दूर
किसी बंजर जमीन पर ठहर कर
अपन दोनों
इरादों की
खेती करेंगे ----

"ज्योति खरे"

सोमवार, सितंबर 02, 2019

बारिश थम गयी

बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का आंगन
अभी तक गीला है
मां के आंसू बहे हैं

कितनी मुश्किलों से खरीदा था
ईंट ,सीमेंट ,रेत
उस साल बाबूजी बेच कर आये थे पुश्तैनी खेत
सोचा था
शहर के पक्के घर में
सब मिलकर हंसी ठहाके लगायेंगे 
तीज-त्यौहार में
सजधज कर बहुऐं चहकेंगी

घर बनते ही सबने
आँगन और छत पर
गाड़ ली हैं अपनी अपनी बल्लियाँ
बांध रखे हैं अलग अलग तार
तार पर फेले सूख रहे हैं
अलग अलग किरदार

इतिहास सा लगता है
कि, कभी चूल्हे में सिंकी थी रोटियां
कांसे की बटलोई में बनी थी
राहर की दाल
बस याद है
आया था रंगीन टीवी जिस दिन
करधन,टोडर,हंसली
बिकी थी उस दिन

बर्षों बीत गये
चौके में बैठकर
नहीं खायी बासी कढ़ी और पुड़ी
बेसन के सेव और गुड़ की बूंदी
अब तो हर साल
बडी़ और अचार में भी
लग जाती है फफूंदी

औपचारिकता निभाने
दरवाजे खुले रखते हैं
एक दूसरे को देखकर
व्यंग भरी हँसी हंसते हैं

बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का छत
अभी तक गीला है
माँ बाबूजी रो रहे हैं--------
            
"ज्योति खरे"

शुक्रवार, अगस्त 23, 2019

कृष्ण का प्रेम


आधुनिक काल की
कंदराओं से निकलकर
कृष्ण का
सार्वजानिक जीवन में
कब प्रवेश हुआ
इतिहास में इसकी तिथि दर्ज नहीं है
दर्ज है केवल कृष्ण का प्रेम

इतिहासकार बताते हैं
भक्ति की सारी मान्यतायें
भक्ति काल में ही
सिकुड़ कर रह गयी थी
जैसे सूती कपड़े को पहली बार
धोने के बाद होता है

सूती साड़ियों से
द्रोपती का तन ढांकने वाला कृष्ण
आधुनिक काल में
नारियों को देखते ही
मंत्र मुग्ध हो जाता है
चीरहरण के समय की
अपनी उपस्थिति को भूल जाता है

सार्वजनिक जीवन में
नाबालिगों से लेकर बूढ़ों तक का
नायक है कृष्ण
राजनितिक दलों का महासचिव
बॉलीवुड का सिंघम

स्वीकार भी करता है कृष्ण
कि, राजनीतिक दखलअंदाजी 
और सूचनाओं के अभाव में
मुझे कई कांडों का पता ही नहीं चलता
कि, इस देश में
शाश्वत प्रेम
अब बलात्कारियों के घरों में रहने लगा है

घनौनी साजिश से लिपटी हवाओं ने
मेरे भीतर के कृष्ण को
बहुत पहले मार दिया था
और मैं अनुशासनहीनता की
छाती से चलकर
बियर बार में बैठने लगा
युवा मित्रों को प्रेम के गुर सिखाने

आत्मग्लानि से भरा मैं
अपने आपको भाग्यशाली मानता हूँ
कि, आज भी मेरे जन्मदिन पर
शुद्ध घी के असंख्य दीपक जलाकर 
प्रार्थना करते हैं लोग
हे कृष्ण
घर परिवार,नाते-रिश्तेदारों
अड़ोसी- पड़ोसी
और देश को
वास्तविक प्रेम का पाठ पढ़ाओ
ताकि इस देश के लोग
जीवन में
वास्तविक प्रेम का अर्थ समझ सकें---

"ज्योति खरे"

शुक्रवार, अगस्त 16, 2019

बच्चे सहेजना चाहते हैं

स्वतंत्रता दिवस की परेड में खड़े
इस महादेश के बच्चे
आपस में बातें कर रहें हैं
कि जहां
मजदूर,किसान,खेत और रोटी की बात होना चाहिए
वहां हथियारों की बात हो रही है

सन्नाटे में खदबदाते तनाव को
सिरे से खारिज कर
मनुष्य के बेहतर जीवन की घोषणाऐं
हो रही हैं

लेकिन इस देश के बच्चे
आज भी सरकारी स्कूल की
चूती छतों के नीचे बैठकर
अच्छा नागरिक बनने
भूखे पेट स्कूल जा रहैं हैं

ऐसे भयानक खतरनाक समय में
राष्ट्रगीत भी गाना जरुरी है

बच्चे खड़े खड़े
नई सुबह के उजाले को पकड़कर
भविष्य का तार तार बुनने का
प्रयास कर रहें हैं

युद्ध मेँ भाग रहे सैनिकों को
एक चुम्बन के बहाने
अपने पास बुला रहें हैं

बच्चे पकड़ना चाहते हैं
माँ का आंचल
दीदी की तार तार हो रही चुन्नी
थामना चाहते हैं पापा की उंगली
पहचानना चाहते हैं
अपनी सभ्यता और संस्कृति

बच्चे सहेजना चाहते हैं
दरक चुकी भारत माता की तस्वीर
आसमान को अपना समझकर
करना चाहते हैँ
ध्रुव तारे से दोस्ती.......

"ज्योति खरे"

रविवार, अगस्त 04, 2019

दोस्तो मेरे पास आओ

तूफानो को
पतवार से बांध दिया है
बहसों, बेतुके सवालों
कपटपन और गुटबाजी की
राई, नून, लाल मिर्च से
नजर उतारकर
शाम के धुंधलके में
जला दिया है

कलह, किलकिल और
संघर्षो को
पुटरिया में लपेटकर
बूढ़े नीम पर
टांग दिया है

बांध लिया है
बरगद की छांव में
बटोर कर रखे
तिनका तिनका
सुखों का झूला

दोस्तो मेरे पास आओ
खट्टी- मीठी
तीखी- चिरपरी
स्मृतियों को झुलायेंगे
थोड़ा सा रो लेंगे
थोड़ा सा हंस लेँगे---

"ज्योति खरे"

शुक्रवार, अगस्त 02, 2019

अस्पताल से

तड़फते,कराहते
वातावरण में
धड़कनों की
महीन आवाजें
पढ़ती हैं
उदास संवेदनाओं
के चेहरों पर
अनगिनत संभावनाऐं

घबड़ाहटें
चुपचाप
देखती हैं
प्लास्टिक की बोंतलों से
टपककती ग्लूकोज की बूंदें
इंजेक्शनों की चुभती सुई के साथ
सिकुड़ते चेहरे

सफेद बिस्तर पर लेटी देह
देखती है
मिलने जुलने वालों के चेहरों को
अपनी पनीली आंखों से
कि,कौन कितना अपना है

अपनों में
अपनों का अहसास
अस्पताल में ही होता है -------

"ज्योति खरे"

शुक्रवार, जुलाई 26, 2019

वाह रे पागलपन

सावन में
मंदिर के सामने
घंटों खड़े रहना
तुम्हें कई कोंणों से देखना

तुम्हारे चमकीले खुले बाल
हवा में लहराता दुपट्टा
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में तुम्हारा भींगना
दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से
नजाकत से पकड़ना,
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना
यह सब देखकर
सीने में लोट जाता था सांप-

पागल तो तुम भी थी
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि,
मैं सूंघ लूं
तुम्हारी देह से निकलती
चंदन की महक
पढ़ लूं आंखों में लगी
कजरारी प्रेम की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान-

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की 
सावनी फुहार में--

वाकई पागल थे अपन दोनों-----

"ज्योति खरे"

सोमवार, जुलाई 22, 2019

पढ़ना जरूरी है


बारूद में लिपटी
जीवन की किताब को
पढ़ते समय
गुजरना पड़ता है
पढ़ने की जद्दोजहद से

दहशतजदा हवाओं का
खिड़कियों से सर्राते चले आना
छत के ऊपर किसी
आतातायी के भागते समय
पैरों की आवाजें आना
खामोश दीवारों की परतों का
अचानक उधड़ कर गिर जाना
बच्चों की नींद की तरह
कई-कई सपनों को
चौंककर देखना
ऐसे समय में भी
पढ़ना तो जरूरी है

जीवन की कसैली नदी में
तैरते समय
डूबने की फड़फडाहट में
पकड़ाई आ जाता है
आंसुओं की बूंदों से भरा आंचल

अम्मा ले आती हैं हमेशा
जीवन के डूबते क्षणों म़े
कसैली नदी से निकालकर
पकड़ा देती है
बारुद से लिपटी किताब

अगर नहीं पढ़ोगे किताब
तो दुनियां में लगी आग को
कैसे बुझा पाओगे---

"ज्योति खरे"

मंगलवार, जुलाई 16, 2019

गुरु पूर्णिमा के दिन

चौराहे की
तीन सड़कों के किनारे
अलग अलग गुटों ने
अपने अपने
मंदिर बना रखे हैं
तरह तरह के पुजारी नियुक्त हैं
अलग अलग गुरुओं की
आवाजाही बनी रहती है

शिक्षित दलालों की दूकानों पर
धड़ल्ले से चलता है
गंडा,ताबीज,भभूत,और मंत्रों का कारोबार

चरणामृत पीने की होड़ में
जीवन मूल्य
गुरुओं के दरबार में
गिरवी रख दिए जाते हैं

गुरु पूर्णिमा के दिन
चौराहे की
चौथी सड़क के आखरी छोर पर
रोप आया हूँ
बरगद का एक पेड़

जब यह बड़ा होकर
अपनी टहनियों को फैलायेगा
शुद्ध और पवित्र ऑक्सीजन का
संचार करेगा
लोग
मठाधीशों के चंगुल से निकलकर
इसकी छांव में बैठकर
अपने वास्तविक जीवन मूल्यों को
समझेंगे
साहसी और निडर बनेंगे

लम्बे समय तक
जिंदा रहने की उम्मीद पर
लड़ सकेंगे
अपने आप से -----

"ज्योति खरे"

गुरुवार, जुलाई 04, 2019

सावधान हो जाओ

बादल दहाड़ते आते हैं
बिजली
बार-बार चमककर
जीवन के
उन अंधेरे हिस्सों को दिखाती है
जिन्हें हम अनदेखा कर
अपनी सुविधानुसार जीते हैं
और सोचते हैं कि,
जीवन जिया जा रहा है बेहतर

बादल बिजली का यह खेल
हमें कर रहा है सचेत और सर्तक
कि, सावधान हो जाओ
आसान नहीं है अब
जीवन के सीधे रास्ते पर चलना

लड़ने और डटे रहने के लिए
एक जुट होने की तैयारी करो

बेहतर जीवन जीने के लिए
पार करना पड़ेगा
बहुत गहरा दलदल ----

"ज्योति खरे"

सोमवार, जुलाई 01, 2019

दाई से क्या पेट छुपाना


रुंधे कंठ से फूट रहें हैं
अब भी
भुतहे भाव भजन--

शिवलिंग,नंदी,नाग पुराना
किंतु झांझ,मंजीरे,ढोलक
चिमटे नये,नया हरबाना
रक्षा सूत्र का तानाबाना

भूखी भक्ति,आस्था अंधी
संस्कार का
रोगी तन मन---

गंग,जमुन,नर्मदा धार में
मावस पूनम खूब नहाय
कितने पुण्य बटोरे
कितने पाप बहाय

कितनी चुनरी,धागे बांधे
अब तक
भरा नहीं दामन---

जीवन बचा हुआ है अभी
एक विकल्प आजमायें
भू का करें बिछावन
नभ को चादर सा ओढें
और सुख से सो जायें

दाई से क्या पेट छुपाना
जब हर
सच है निरावरण-------

"ज्योति खरे"

रविवार, जून 23, 2019

रिक्शे वाला

रिक्शे वाला
********
मैं न प्रेमी हूं
न आशिक हूं
न मंजनू हूं
न दीवाना हूं
मेरा काम है
सुबह से सड़कोँ पर
मनुष्य की मनुष्यता को ढ़ोना
रोज कमाना
रोज खाना

शाम को बैठ जाता हूँ
शहर की सूखती नदी के किनारे
करता हूँ नदी से ढेर सारी बातेँ
समझाता हूं उसे
बहती रहो
तुम इस सदी में तो नहीं सूखोगी
क्योंकि, तुम बहाकर ले जाती हो दुख
और दिनभर की जहरीली बातेँ.

सोता हूँ खुले आसमान के नीचे
देखता हूँ सपनीले सपने
सपने मेँ तलाशता हूँ
शायद कभी कोई मिल जाए अपना

यदि किसी मेँ जीवित हो थोड़ी सी भी संवेदना और हो मुझसे मिलने की ललक
तो किसी भी चौराहे पर चले आना
मेरी पहचान है
रिक्शे वाला

आटो के इस दौर में
मुझे कम लोग पहचानते हैँ
अगर पहचान जाओ
तो महरबानी आपकी

कभी कभी
लोग आते हैं
प्रेम भरी बातें करतें हैं
महगाई के इस दौर मेँ भी
मैं प्रेम के धोके में फंस जाता हूं
उनकी बातों में उलझ जाता ह़ू
क्योंकि
मोलभाव करके ही
मेरी पीठ पर बैठकर लोग
गंतव्य की ओर
जाना पसंद करते हैं ---  

"ज्योति खरे "

गुरुवार, जून 20, 2019

मुजफ्फरपुर से

आसमान में गूंजती
मुजफ्फरपुर के बच्च्चों की
दर्दनाक चीखें
रोते हुए घर से निकली
सकरी गली से गुजरती
शासकीय अस्पताल में आकर
एक दूसरे से मिली

कांपती, सिसकती
मासूम बच्चों की सांसें
न जाने कितने घंटे, दिन
अपने बचे रहने के लिए
गिड़गिड़ाने लगीं

बच्चों की कराह को अनसुना कर
नयी योजनाओं को लागू करने का
फोटो खिंचवाते समय
स्वांग रचते रहै
हमारे नेता

अब कोई इन बच्चों के करीब आता है
छू कर महसूसता है इनका दर्द
छनछना जाती हैं आंखें
बूंदें टपक कर
बिखेर देती हैं जमीन पर
सारी अव्यवस्थायें
कि, देखो
बच्चों के रिसते हुए खून पर
राजनीति करने वाले
संसद में बैठकर
बच्चों की मौत का मातम मनायेंगे

अभी- अभी खबर मिली है
कि, मौत से जूझते बच्चों के चेहरों पर
चाहतों की आंखें बिछ गयी हैं

मुस्तैद हो गयी हैं
कैमरों की आंखें
खींच रही हैं फोटो
पहले नेगेटिव फिर पाजिटिव
निगेटिव, पाजिटिव के बीच
फैले गूंगेपन में
चीख रहैं हैं बच्चे
चीख रहा है
मुजफ्फरपुर
बेआवाज़

फोटो गवाह है कि
मुजफ्फरपुर चीख रहा है
देश चीख रहा है
गूंगी फोटो
अखबार के मुखपृष्ठ पर चीख रही है

चीखती रोती बिलखती
मायें
अपने बाहर निकलते कलेजे को थामें
हर आगंतुक के सामने
आंचल फैलाए
चीख रहीं हैं
पूंछ रही हैं
क्या ? कोई
बच्चों को जिंदा रखने का
उपाय बतायेगा--

"ज्योति खरे"

रविवार, जून 16, 2019

पापा

अँधेरों को चीरते
सन्नाटे में
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था

कांच के चटकटने सी
ओस के टपकने सी
शाखाँओं को तोड़ने सी
दुखों के बदलों के बीच में से
सूरज के साथ सुख के आगमन सी
इन क्षणों में पापा
व्यक्ति नहीं समुद्र बन जाते थे

उम्र के साथ
पापा ने अपनी दिशा और दशा बदली
पर नहीं बदले पापा
भीतर से
क्योंकि
उनके जिन्दा रहने का कारण
आंसुओं को अपने भीतर रखने की जिद थी

पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का मीठा समुद्र

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते में रखने वाले पापा
अमरत्व के वास्तविक हकदार थे

पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल खटखटाते हैं---

" ज्योति खरे "

मंगलवार, जून 04, 2019

ईद मुबारक


सुबह से
इंतजार है
तुम्हारे मोगरे जैसे खिले चेहरे को
करीब से देखूं
ईद मुबारक कह दूँ
पर तुम
शीरखुरमा, मीठी सिवईयाँ
बांटने में लगी हो

मालूम है
सबसे बाद में
मेरे घर आओगी
दिनभर की थकान उतारोगी
बताओगी
किसने कितनी ईदी दी

तुम
बिंदी नहीं लगाती
पर मैं
इस ईद में
तुम्हारे माथे पर
गुलाब की पंखुड़ी
लगाना चाहता हूं

मुझे नहीं मालूम
तुम इसे
प्रेम भरा बोसा समझोगी
या गुलाब की सुगंध का
आत्मीय अहसास
या ईदी

अब जो भी हो
प्रेम तो जिन्दा रखना है
अपन दोनों को ----

"ज्योति खरे"

रविवार, जून 02, 2019

सावित्री का प्रेम आज भी जिंदा है-----


डंके की चोट पर
ऐंठ कर पकड़ ली
मृत्यु के देवता की कालर
विद्रोह का बजा दिया बिगुल 
निवेदनों की लगा दी झड़ी

गहरे धरातल से
खींच कर ले आयी
अपने प्रेम को
अपनी आत्मा को

बांध कर कच्चा सूत
बरगद की पीठ पर
ले गयी अपनी आत्मा को
सपनों की दुनियां से परे
नफरतों के वास्तविक गारे से बनी
कंदराओं में

अपने पल्लू में लपेटकर
ले आयी
शाश्वत प्रेम को

सावित्री होने का सुख
कच्चे सूत में पिरोए
पक्के मोतियों जैसा
होता है---------

"ज्योति खरे"

रविवार, मई 26, 2019

तपती गरमी जेठ मास में ------

अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम बरगद नीचे
तपती गरमी जेठ मास में-

प्यास प्यार की लगी हुयी
होंठ मांगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना

रूप सांवला हवा छू रही
बेला महकी जेठ मास में--

बोली अनबोली आंखें
पता मांगती घर का
लिखा धूप में उंगली से
ह्रदय देर तक धड़का

कोलतार की सड़कों पर  
राहें पिघली जेठ मास में---  

स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते

आशाओं के बाग खिले जब 
यादें टपकी जेठ मास में-----

"ज्योति खरे"

सोमवार, मई 20, 2019

नदी और पहाड़


अच्छे दोस्त हैं
नदी और पहाड़
दिनभर एक दूसरे को धकियाते
खुसुर-पुसुर बतियाते हैं

रात के गहन सन्नाटे में
दोनों
अपनी अपनी चाहतों को
सहलाते पुचकारते हैं

चाहती है नदी
पहाड़ को चूमते बहना
और पहाड़
रगड़ खाने के बाद भी
टूटना नहीं चाहता

दोनों की चाहतों में
दुनियां बचाने की
चाहते हैं------

"ज्योति खरे"