रविवार, अगस्त 23, 2020

नदी

सुबह
तुम जब
सिरहाने बैठकर 
फेरकर माथे पर उंगलियां
मुझे जगाती हो

मैँ 
तुम्हारी तरह
नदी बन जाती हूँ
दिनभर 
चमकती,इतराती,लहराती हूं---

"ज्योति खरे"

बुधवार, अगस्त 12, 2020

कृष्ण का प्रेम

कृष्ण का प्रेम
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भक्तिकाल की 
कंदराओं से निकलकर 
आधुनिक काल की
चमचमाती रौशनियों से सजे 
सार्वजानिक जीवन में
कृष्ण के स्थापित प्रेम का
कब प्रवेश हुआ
इसकी कोई तिथि दर्ज नहीं है
दर्ज है केवल प्रेम

प्रेम की सारी मान्यतायें
भक्ति काल में ही
जीवित थी
आधुनिक काल में तो प्रेम
सूती कपड़ों की तरह 
पहली बार धुला
औऱ सिकुड़ गया

रेशमी साड़ियों से
द्रोपती का तन ढांकने वाला यह प्रेम
स्त्रियों को देखते ही
मंत्र मुग्ध हो जाता है
चीरहरण के समय की
अपनी उपस्थिति को 
भूल चुका यह प्रेम 
नाबालिगों से लेकर 
बूढ़ों तक का
नायक बन जाता है
राजनितिक दलों का प्रवक्ता
औऱ थानों के हवलदारों
की जेब में रख लिया जाता है 

घिनौनी साजिशों से 
लिपटी हवाओं ने
कृष्ण के प्रेम को
जब नये अवतार में
पुनर्जीवित किया 
अनुशासनहीनता की छाती में 
पांव रखवाकर
बियर बार में बैठाया
उसी दिन से 
दिलों की धड़कनों में
धड़कने लगा प्रेम 
इस गुर को सिखाने 
वाले कई उस्ताद 
पैदा होने लगे

आत्मसम्मान से भरे
इस प्रेम को
कभी भी आत्मग्लानि का
अनुभव नहीं हुआ
क्योंकि वह आज भी
अपने आपको 
भाग्यशाली मानता है
कि,मेरे जन्मदिन पर
शुद्ध घी के 
असंख्य दीपक जलाकर 
प्रार्थना करते हैं लोग-----

"ज्योति खरे"

गुरुवार, अगस्त 06, 2020

प्रेम तुम कब आ रहे हो

प्रेम तुम कब आ रहे हो
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तार पीतल के हों
एल्युमिनियम के हों
या हों टेलीफोन के 
प्रेम के तार 
किसी भी तार से नहीं बंधते
प्रेम तो
हवा में तैरकर अपना रास्ता बनाता है

लोग जब
अपने आप से घबड़ाते हैं
तो बैचेनियाँ के पहाड़ पर
चढ़ कर
प्रेम को बुलाने की कोशिश करते हैं 
अपनी टूटती साँसों  से निकलती
थरथराती आवाज से
आग्रह करते हैं

कभी 
प्रेमी और प्रेमिका के अलावा
मुझे भी याद कर लिया करो 
कसम से 
शरीर में बिजली दौड़ जाएगी
टूटती साँसों को 
राहत का ठिकाना मिलेगा

जल्दी आओ प्रेम
रिश्तों के टकराव से
दरक रही छत पर बैठकर 
तुम्हें बताएंगें
मनमुटाव के किस्से
दिखाएंगे
कलह की जमीन के हो रहे टुकड़े

मुझे तुमको छूकर देखना है
अपने भीतर महसूसना है
जल्दी आओ प्रेम
मेरा रोम-रोम 
तुम्हारी प्रतीक्षा में 
खड़ा है 

प्रेम तुम कब आ रहे ही--- --

"ज्योति खरे "

रविवार, अगस्त 02, 2020

सावन सोमवार औऱ मैं

वाह रे पागलपन
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तुम्हारे चमकीले खुले बाल
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में भींगना
हरे दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से 
नजाकत से पकड़ना
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना

यह देखने के लिए
घंटो खड़े रहते थे
सावन सोमवार के दिन
मंदिर के सामने
कितना पागलपन था उन दिनों

पागल तो तुम भी थी 
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि में सूंघ लूं
देह से निकलती चंदन की महक
पढ़ लूं काजल लगी
आंखों की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान--

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की  
सावनी फुहार में-

वाकई पागल थे अपन दोनों-----

"ज्योति खरे"

दोस्तों के लिए दुआ

दोस्तों के लिए दुआ
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मैं बजबजाती जमीन पर खड़ा
मांग रहा हूँ 
दोस्तों के लिए दुआ

सबकी गुमशुदा हंसी
लौट आये घर
कोई भी न करे
मजाकिया सवाल 
न सुनाए बेतुके कहकहे 

मैं सबकी आँखों में 
धुंधलापन नही
सुनहरी चमक 
दुख सहने का हुनर
औऱ
सुख भोगने का सलीका 
दुश्मनों से दोस्ती हो
 
मैं मांग रहा हूँ 
तुम्हारे और मेरे भीतर 
पनप रही खामोशियों को
तोड़ने की ताकत

दोस्तो
हम सब मिलकर
सिद्ध करना चाहते है
कि
अपन पक्के दोस्त हैं----

"ज्योति खरे"