शनिवार, फ़रवरी 16, 2019

पुलवामा से

सूरज का माथा चूमने वाले
प्रकाश चक्र थे वे
धरती को मां कहने वाले
सुरक्षा बीज थे वे
सारी दिशाओं में घूमते
प्रहरी थे वे
फौजी थे वे

जा रहे थे
नयी ऊर्जा के साथ
अवकाश के बाद
मां से गले लिपटकर
पिता को आश्वस्त करके
बेटे को प्यार और
बिटिया को चूमकर
गांव की गीली मिट्टी की
सुगंध खा कर
सुरक्षा करने

उनींदी अवस्था में
पहले कदम पर ही
मार दिए गये
आतंकियों द्वारा

भूख, हत्या, शोषण, राजनीति
राष्ट्रीय हास्य क्रीड़ाओं
राष्ट्रीय आपदाओं
अंतरराष्ट्रीय प्रलापों
से भी भयावह है
यह रक्त प्रवाह

वे
मरे नहीं
जीवित हैं
लिख गये हैं
संवेदनाओं की पीठ पर
जीत की परिभाषा----

"ज्योति खरे"

पुलवामा से

सूरज का माथा चूमने वाले
प्रकाश चक्र थे वे
धरती को मां कहने वाले
सुरक्षा बीज थे वे
सारी दिशाओं में घूमते
प्रहरी थे वे
फौजी थे वे

जा रहे थे
नयी ऊर्जा के साथ
अवकाश के बाद
मां से गले लिपटकर
पिता को आश्वस्त करके
बेटे को प्यार और
बिटिया को चूमकर
गांव की गीली मिट्टी की
सुगंध खा कर
सुरक्षा करने

उनींदी अवस्था में
पहले कदम पर ही
मार दिए गये
आतंकियों द्वारा

भूख, हत्या, शोषण, राजनीति
राष्ट्रीय हास्य क्रीड़ाओं
राष्ट्रीय आपदाओं
अंतरराष्ट्रीय प्रलापों
से भी भयावह है
यह रक्त प्रवाह

वे
मरे नहीं
जीवित हैं
लिख गये हैं
संवेदनाओं की पीठ पर
जीत की परिभाषा----

"ज्योति खरे"

बुधवार, फ़रवरी 13, 2019

साझा संकल्प

तुम्हारे मेंहदी रचे हाथों में
रख दी थी मैंने
अपनी भट्ट पड़ी हथेली
और तुमने
महावर लगे अपने पांव
रख दिये थे
मेरे खुरदुरे आंगन में

साझा संकल्प लिया था
अपन दोनों ने
कि,बढेंगे मंजिल की तरफ एक साथ

सुधारेंगे खपरैल छत
जिसमें गर्मी में धूप
छनकर नहीं
सूरज को भी साथ ले आती है
बरसात बिना आहट के
सीधे कमरे में उतर आती है
कच्ची मिट्टी के घर को
बचा पाने की विवशताओं में
पसीने की नदी में
फड़फड़ाते तैरते रहेंगे

फासलों को हटाकर
अपने सदियों के संकल्पित
सपनों की जमीन परलेटकर
प्यार की बातें करेंगे अपन दोनों

साझा संकल्प तो यही लिया था
कि,मार देंगे
संघर्ष के गाल पर तमाचा
जीत के जश्न में
हंसते हुये बजायेंगे तालियां
अपन दोनों---

"ज्योति खरे"
( आज तैंतीस वर्ष हो गये संकल्प को निभाते हुए )

शुक्रवार, फ़रवरी 01, 2019

सुना है

धुंधली आंखें भी
पहचान लेती हैं
भदरंग चेहरे
सुना है
इन चेहरों में
मेरा चेहरा भी दिखता है--

गुम गयी है
व्यवहार की किताब
शहर में
सुना है
गांव के कच्चे घरों में
अपनापन
आज भी रिसता है--
   
इस अंधेरे दौर में
जला कर रख देती है
बूढ़ी दादी
लालटेन
सुना है
बूढ़ा धुआं
दर्द अपना लिखता है--

नीम बरगद के भरोसे
झूलती हुई झूला
उड़ रही है आकाश में
गांव की खिलखिलाती
लड़कियाँ
सुना है
प्यार की चुनरी के पीछे
चांद
आकर छिपता है--

"ज्योति खरे"