शुक्रवार, जुलाई 26, 2019

वाह रे पागलपन

सावन में
मंदिर के सामने
घंटों खड़े रहना
तुम्हें कई कोंणों से देखना

तुम्हारे चमकीले खुले बाल
हवा में लहराता दुपट्टा
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में तुम्हारा भींगना
दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से
नजाकत से पकड़ना,
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना
यह सब देखकर
सीने में लोट जाता था सांप-

पागल तो तुम भी थी
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि,
मैं सूंघ लूं
तुम्हारी देह से निकलती
चंदन की महक
पढ़ लूं आंखों में लगी
कजरारी प्रेम की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान-

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की 
सावनी फुहार में--

वाकई पागल थे अपन दोनों-----

"ज्योति खरे"