सोमवार, मई 18, 2020

लौट रहें हैं अपने गांव--

तुम्हारे वादों को 
आवाजों को
सिरे से खारिज कर 
अपने मजबूत पांव में
बांधकर आत्मनिर्भरता
हम तो लौट रहें हैं अपने गांव--

शातिरों ने
संवेदनाएं
लिखकर कागज में भेजी
रोटियों के बदले
खाली पन्नी भेजी
झुलसा हुआ जीवन
भींग रहा है
भूखा पेट चीख रहा है
तुम बचाओ अपना आत्मसम्मान
हम तो लौट रहे हैं अपना गांव--

सूरज की खामोशियां
सब जानती हैं
तपती हवायें
पसीने और आंसुओं को
पहचानती हैं
लाठियां क्या रोकेंगी 
हमारे इरादे 
तुम्हारे शब्दजालों को फाड़कर
हम तो लौट रहें हैं अपने गांव---

उजाले 
कितने चालक निकले
दे गये धोखा
इन दिनों
पास में माचिस तो है
पर तीली नहीं 
है सिर्फ धोखा

आश्वासनों की दुकान से
रहन रखे 
जीवन को छुड़ाकर
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव
हम तो लौट रहे हैं अपने गांव----

"ज्योति खरे"