सोमवार, सितंबर 12, 2016

बिटिया, जीत तो तुम्हारी ही होती है ----



सुबह होते ही
फेरती हो स्नेहमयी उंगलियाँ
उनींदी घास हो जाती है तरोताजा

गुनगुनाने की आवाज सुनते ही
निकलकर घोंसलों से
टहनियों पर पंख फटकारती
बैठ जाती हैं चिरैयां
बतियाने

मन ही मन मुस्कराती हैं 
जूही,चमेली,रातरानी
 

नाचने लगती हैं  
कांच के भीतर रखी
बेजान गुड़ियां भी
 

जलने को मचलने लगता है चूल्हा
जिसे तुम बचपन में
खरीद कर लायीं थी सावन के मेले से

पायलों की आहट सुनकर
सचेत हो जाता है आईना
वह जानता है
आईने के सामने ही खड़ी होकर
अपने होने के अस्तित्व को
सजते सवंरते स्वीकारती हो

तुम्हारे होने और तुम्हारे अस्तित्व के कारण ही
युद्ध तो आदिकाल से हो रहा है

जीत तो तुम्हारी ही होती है
ठीक वैसे ही , जैसे !!
काँटों के बीच से
रक्तिम आभा लिए
गुलाब की पंखुड़ियां निकलती हैं -------

बिटिया को जन्मदिन की स्नेह भरी शुभकामनाएं ----
                                  " ज्योति सुनीता खरे "




मंगलवार, फ़रवरी 09, 2016

अंधेरे में आया था




शंकाऐं ह्रदय तट पर
जमघट लगाएं
अरमान मरघट सजाऐं---

बांधकर
दाल दी है मैंने
गठरी में
यातनायें और पीड़ा
फिर भी रेंगता है
सूखे जलाशय का कीड़ा
अन्तःस्थल में
रेगिस्तान सी
जलती हुई बालू
रोम रोम झुलस रहा
मन चिंघाड़ रहा
आत्मसंतोष है
फिर क्यों सूख रहा तालू---
जीवन का दूसरा
पन्ना पलटना चाहता हूं
अतीत के इतिहास पर
व्यंग भरी हंसी
हंसना चाहता हूं---
ना जाने किस पाषाड़ से
जन्म पाकर
पत्थरों के शहर में
गिड़गिड़ा रहा हूं
खून अपना अमृत समझकर
पी रहा हूं----
शिवालय भी पत्थर के
पत्थर से बनते हैं
अपनी ही ममता को
अपने ही हांथों से पटकते हैं
शरीर से जुडी परछांई
मेरी पावन सहेली है
मेरी जिंदगी तो
अभावों के साथ खेली है----
यातनाऐं न होती तो
कामनाओं से न जूझता
कमनाऐं न होती तो
यातनाओं से न जूझता
अंधेरे में आया था
अंधेरे में जा रहा हूं
खून अपना अमृत
समझकर पी रहा हूं-----
                                     
"ज्योति खरे" 

चित्र- गूगल से साभार