बुधवार, दिसंबर 30, 2020

कैसे भूल सकता हूँ तुम्हें

कैसे भूल सकता हूँ तुम्हें
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गांव की छोटी सी 
किराने की दुकान से
एक पाव आटा और नमक 
पेड़ के नीचे बैठी
सब्जी वाली से 
आलू,भटा और मिर्च
खरीदता आ गया हूँ 
न सूखने की जिद पर अड़ी  
रेतीली नदी के किनारे
बैठकर 
सुलगा रहा हूँ
जंगल से बीन कर लाये कंडे
जिनमें भूजूंगा
गक्कड़,आलू औऱ भटा के साथ
भूख और लाचारी 

कमबख्त 
सरसराती ठंडी हवाएं भी
इसी समय 
कुरेद रहीं हैं 
घाव के ऊपर जमीं पपड़ी

कैसे भूल सकते हैं तुम्हें
दो हजार बीस
कि, तुमने हमारी पीठ पर
चिपकाकर
निरादर औऱ अपमान की पर्ची
रोजी रोटी के सवालों को धकियाकर 
दौड़ा दिया था
राष्ट्रीय राजमार्ग पर
कभी नहीं भूल पाएंगे
वह चिलचिलाती धूप की दोपहर
एक बूढी मां ने
अपने हिस्से की रोटी देते समय कहा
बेटा 
मेरे पास चौड़ी छाती तो नहीं
पर दिल है
साथ में काम करने वाली मजदूर लड़की ने
पसीने को पोंछने
अपना दुपट्टा उतारकर देते हुए कहा था
जिंदा रहो तो हमें याद रखना
हम सड़क पर 
पानी की आस लिए
अपने घर की ओर चलते रहे 
औऱ तुम
दरबार में बैठकर 
भजन गाते रहे

कैसे भूल सकते हैं तुम्हें
दो हजार बीस
कि,कराहती साँसों को रौंदकर तुम
उमंग औऱ उत्साह से भरे
जुलूसों में समर्थंन जुटाने
फिरते रहे शहर शहर
जो हाथ 
तुम्हारे स्वागत में
तालियां बजाते रहे
उन्हीं हांथों में
लोकतंत्र के बहाने
फुटपाथ सौपकर जा रहे हो

दो हजार बीस
बैठो हमारे साथ
गक्कड़ भरता खाओ
औऱ जाते जाते याद रखना
मेहनतकश 
कलेंडरों पर लिखी 
तारीखें नहीं गिनते
वे तो 
लिखते हैं नए सिरे से इतिहास

कैसे भूल सकते हैं तुम्हें
दो हजार बीस

"ज्योति खरे"