बुधवार, मई 25, 2022

बूंद

💧बूंद 💦
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उबलता हुआ जीवन
आसमान की छत पर
भाप बनकर चिपक जाता है जब
तब काला सफ़ेद बादल
घसीट कर भर लेता है
अपने आगोश में  
फिर भटक भटक कर 
टपकाने लगता है
पानीदार बूंदें 

बादल देखता है
धरती की सतह पर
भूख से किलबिलाते बच्चों के
चेहरों पर बनी
आशाओं की लकीरें 
पढ़ता है प्रेम की छाती पर लिखे
विश्वास,अविश्वास के रंगों से गुदे
अनगिनत पत्र
दरकते संबंधों में बन रही
लोक कलाकारी
और दहशत में पनप रहे संस्कार

इस भारी दबाब में
टपकती हैं
जीवनदार बूंदे
क्यों कि, बूंद
सहनशील होती है
खामोश रहकर  
कर देती है
धूल से भरी
अहसास की जमीन को साफ
बूंद तनाव से मुक्त होती है

बूंद
तृप्त कर देती है अतृप्त मन को
सींच देती है
अपनत्व का बगीचा
बूंद
तुम्हारे कारण ही
धरती पर जिंदा है हरियाली
जिंदा है जीवन-----

◆ज्योति खरे

शनिवार, मई 21, 2022

चाय की चुस्कियों के साथ

चाय की चुस्कियों के साथ
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हांथ से फिसलकर
मिट्टी की गुल्लक क्या फूटी
छन्न से बिखर गयी
चिल्लरों के साथ
जोड़कर रखी यादें 

कुहरे को चीरती उभर आयीं 
शहर की पुरानी गलियों में जमी मुलाकात
जब एक सुबह 
खिड़कियों को खोलते समय
पास वाली सड़क पर लगे
ठेले पर
चाय की चुस्कियों के साथ
तुम्हें देखा था
चहक रहे थे तुम
तुम्हारी वह चहक
भर रही थी 
मेरे भीतर की खाली जगहों को
उन दिनों मैं भी 
चहकने लगी थी
चिड़ियों की तरह
जब गर्म चाय को फूंकते समय
तुम्हारे होंठ से
निकलती थी मीठी सी धुन 
मैं उन धुनों को सुनने 
आना चाहती थी तुम्हारे पास

तुम्हारी आंखें भी तो
खिड़की पर खोजती थी मुझे
फिर 
आखों के इशारे से
तुम्हारे चेहरे पर खिल जाते थे फूल
दिन में कई बार खोलती खिड़की
और देखती
कि तुम्हारे चेहरे पर
खिले हुए फूल 
चाय के ठेले के आसपास तो
नहीं गिरे हैं

टूटी हुई गुल्लक को 
समेटते समय
तुम फिर याद आ रहे हो
तुम भी तो 
याद करते होगे मुझे

खिंच रहीं
काली धूप की दीवारों के दौर में
कभी मिलेंगे हम 
जैसे आपस में 
खेतों को मिलाती हैं मेड़
मुहल्लों को मिलाती हैं
पुरानी गलियां
और बन जाता है शहर
 
एक दिन 
तुम जरूर आओगे
उसी जगह 
जहां पीते थे 
चुस्कियां लेकर चाय
और मैं
खिड़कियां खोलकर
करूंगी
तुमसे मिलने का ईशारा

उस दिन
तुम कट चाय नहीं
फुल चाय लेना
एक ही ग्लास में पियेंगे
और एक दूसरे की चुस्कियों से निकलती
मीठी धुनों को
एक साथ सुनेंगे

◆ज्योति खरे

मंगलवार, मई 17, 2022

अभिवादन के इंतजार में

सामने वाली 
बालकनी से
अभी अभी 
उठा कर ले गयी है
पत्थर में लिपटा कागज

शाम ढले
छत पर आकर
अंधेरे में 
खोलकर पढ़ेगी कागज

चांद
उसी समय तुम
उसके छत पर उतरना
फैला देना 
दूधिया उजाला
तभी तो वह
कागज में लिखे 
शब्दों को पढ़ पाएगी
फिर
शब्दों के अर्थों को
लपेटकर चुन्नी में
हंसती हुई
दौड़कर छत से उतर आएगी

मैं
अपनी बालकनी में
उसके 
अभिवादन के इंतजार में
एक पांव पर खड़ा हूँ----

◆ज्योति खरे

गुरुवार, मई 05, 2022

कैसी हो फरज़ाना

कैसी हो "फरज़ाना"
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अक्सर 
बगीचे में बैठकर
करते थे
घर,परिवार की बातें
टटोलते थे
एक दूसरे के दिलों में बसा प्रेम

आज उसी बगीचे में
अकेले बैठकर
लिख रहा हूं
धूप के माथे पर
गुजरे समय का सच

जब तुम
हरसिंगार के पेड़ के नीचे 
चीप के टुकड़े पर
बैठ जाया करती थी
मैं भी बैठ जाता था
तुम्हारे करीब
और निकालता था
तुम्हारे बालों से
फंसे हुए हरसिंगार के फूल
इस बहाने
छू लेता था तुम्हें
डूब जाता था
तुम्हारी आंखों के
मीठे पानी में

एक दिन
लाठी तलवार भांजती
भीड़ ने
खदेड़ दिया था हमें
उसके बाद
हम कभी नहीं मिले

अब तो हर तरफ से 
खदेड़ा जा रहा है प्रेम
सूख गयी है 
बगीचे की घास
काट दिया गया है
हरसिंगार का पेड़ 

उम्मीद तो यही है
कि, दहशतज़दा समय को
ठेंगा दिखाता
एक दिन फिर बैठेगा 
बगीचे की हरी घास पर प्रेम
फिर झरेंगे हरसिंगार के फूल

तुम भी इसी तरह की
दुआ मांगती होगी
कि, कब
धूप और लुभान का
धुआं 
जहरीले वातावरण को
सुगंधित करेगा

कैसी हो फरज़ाना
इसी बगीचे में 
फिर से मिलो
एक दूसरे की बैचेनियां
फिर से 
साझा करेंगे---

◆ज्योति खरे

रविवार, मई 01, 2022

मजदूर

मजदूर 
*****
सपनों की साँसें 
सीने में
बायीं ओर झिल्ली में बंद हैं
जो कहीं गिरवी नहीं रखी
न ही बिकी हैं,
नामुमकिन है इनका बिकना

गर्म,सख्त,श्रम समर्पित हथेलियों में
खुशकिस्मती की रेखाएं नहीं हैं
लेकिन ये जो हथेलियां हैं न !
इसमें उंगलियां हैं
पर पोर नहीं
सीधी-सपाट हैं
नाख़ून पैने
नोचने-फाड़ने का दम रखते हैं 

पैरों की एड़ियां कटी-फटी,तलवे कड़े
घुटने,पंजे,पिडलियां कठोर
पांव जो महानगरीय सड़कों पर 
सुविधा से नहीं चल पाए
राजपथ में
दौड़ने का साहस रखते हैं

छाती में विशाल हृदय 
मजबूत फेफड़ा है
जिसकी झिल्ली में बंद हैं
सपनों की साँसे 

इन्हीं साँसों के बल 
कल जीतने की लड़ाई जारी है
और जीत की संभावनाओं पर
टिके रहने का दमखम है
क्योंकि,
इन्हीं साँसों की ताकत में बसा है 
मजदूर की
खुशहाल ज़िन्दगी का सपना----

◆ज्योति खरे

मजदूर दिवस जिंदाबाद