सोमवार, सितंबर 30, 2019

वृद्बाश्रम में

वृद्धाश्रम में
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अच्छे नर्सरी स्कूल में
बच्चों के दाखिले के लिए
सिफारिश का इंतजाम
पहले से किया जाने लगता है
क्यों कि बच्चे
भविष्य की उम्मीद होते हैं

इस दौडा़ भागी में
बूढे मां बाप का तखत
टीन का पुराना संदूक
भगवान का आसन
कांसे का लोटा
लाठी, छाता
चमड़े का बैग
जिसमें पिता के पुराने कागजात रहते हैं
अम्मा की कत्थई रग की पेटी
जो मायके से लायी थी
चीप से बनी खुली अलमारी में
रख दी जाती हैं
दिनभर इस काम को निहारते
पिता और अम्मा सोचते हैं
शायद घर को
और सजाया संवारा जा रहा है

शाम को
गिलकी की भजिया और
सूजी का हलुआ
परोसते समय
कह दिया जाता है
अब आप लोग
पीछे वाले
कमरे में रहेंगे

बेटा अब स्कूल जायेगा
शाम को बाहर वाले कमरे में
वह टियूशन पढ़ेगा

बेटे के भविष्य को बनाने
बूढ़ों को
पीछे घसीट कर डाल दिया जाता है

वृद्धाश्रम में
बूढ़ों को रखने की
होड़ सी मची है
बेटा शाम को लौटते समय
एक फार्म ले आया है

पिता
पिता ही होता है
वे आज खाने की मेज पर नहीं बैठे
भीतर बसी
चुप्पियों को तोड़ते बोले

घर में जगह नहीं बची
वृद्धाश्रम में
बची है
तुम्हें तुम्हारे
सुख की हंसी की शुभकामनाएं
मैं अपने साथ
अपने सपनों को ले जाउंगा
वृद्धाश्रम के
खुरदुरे आंगन में
अपनों के साथ
रेत का घरौंदा बनाउंगा-----

"ज्योति खरे"

बुधवार, सितंबर 18, 2019

इरादे


अपने इरादों को
तुमने ही दो भागों में बांटा था
अपने हिस्से के इरादे को
तुम अपने दुपट्टे में बांधकर
ले गयीं थी
यह कहकर
मैं अपने इरादे पर कायम रहूंगी
इसे पूरा करुँगी ---

मैं भी अपने हिस्से का इरादा
लेकर चल दिया था
जो आज भी
मेरे सीने में जिंदा है

शायद तुम ही
अपने इरादों से बधें दुपट्टे को
पुराने जंग लगे संदूक में रख कर
भूल गयी थी

अब अपने इरादों का दुपट्टा ओढ़कर
घर से बाहर निकलो
मैं सड़क पर
साइकिल लिए खड़ा हूँ
तुम्हारे पीछे बैठते ही
मेरे पाँव
इरादों के पैडिल
तेज गति से घुमाने लगेंगे

दूर बहुत दूर
किसी बंजर जमीन पर ठहर कर
अपन दोनों
इरादों की
खेती करेंगे ----

"ज्योति खरे"

सोमवार, सितंबर 02, 2019

बारिश थम गयी

बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का आंगन
अभी तक गीला है
मां के आंसू बहे हैं

कितनी मुश्किलों से खरीदा था
ईंट ,सीमेंट ,रेत
उस साल बाबूजी बेच कर आये थे पुश्तैनी खेत
सोचा था
शहर के पक्के घर में
सब मिलकर हंसी ठहाके लगायेंगे 
तीज-त्यौहार में
सजधज कर बहुऐं चहकेंगी

घर बनते ही सबने
आँगन और छत पर
गाड़ ली हैं अपनी अपनी बल्लियाँ
बांध रखे हैं अलग अलग तार
तार पर फेले सूख रहे हैं
अलग अलग किरदार

इतिहास सा लगता है
कि, कभी चूल्हे में सिंकी थी रोटियां
कांसे की बटलोई में बनी थी
राहर की दाल
बस याद है
आया था रंगीन टीवी जिस दिन
करधन,टोडर,हंसली
बिकी थी उस दिन

बर्षों बीत गये
चौके में बैठकर
नहीं खायी बासी कढ़ी और पुड़ी
बेसन के सेव और गुड़ की बूंदी
अब तो हर साल
बडी़ और अचार में भी
लग जाती है फफूंदी

औपचारिकता निभाने
दरवाजे खुले रखते हैं
एक दूसरे को देखकर
व्यंग भरी हँसी हंसते हैं

बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का छत
अभी तक गीला है
माँ बाबूजी रो रहे हैं--------
            
"ज्योति खरे"