गुरुवार, अगस्त 25, 2022

राह देखते रहे

राह देखते रहे
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राह देखते रहे उम्र भर 
क्षण-क्षण घडियां 
घड़ी-घड़ी दिन 
दिन-दिन माह बरस बीते 
आंखों के सागर रीते--

चढ़ आईं गंगा की लहरें 
मुरझाया रमुआ का चेहरा 
होंठों से अब 
गयी हंसी सब  
प्राण सुआ है सहमा-ठहरा 

सुबह,दुपहरी,शामें 
गिनगिन 
फटा हुआ यूं अम्बर सीते--

सुख के आने की पदचापें 
सुनते-सुनते सुबह हो गयी 
मुई अबोध बालिका जैसी 
रोते-रोते आंख सो गयी 

अपने दुश्मन 
हुए आप ही 
अपनों ने ही किये फजीते--

धोखेबाज खुश्बुओं के वृत
केंद्र बदबुओं से शासित है 
नाटक-त्राटक,चढ़ा मुखौटा 
रीति-नीति हर आयातित है 

भागें कहां, 
खडे सिर दुर्दिन 
पड़ा फूंस है, लगे पलीते--

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अगस्त 11, 2022

दोस्त के लिए

दोस्त के लिए
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तार चाहे पीतल के हों
या हों एल्युमिनियम के 
या हों फोन के 
दोस्त!
दोस्ती के तार 
महीन धागों से बंधे होते हैं

मुझे 
प्रेमिका न समझकर
दोस्त की तरह  
याद कर लिया करो

जिस दिन ऐसा सोचोगे
कसम से 
दो समानांतर पटरियों में 
दौड़ती ट्रेन में बैठकर हम
जमीन में उपजे 
प्रेम के हरे भरे पेड़ों को
अपने साथ दौड़ते देखेंगे

कभी आओ 
रेलवे प्लेटफार्म पर
सीमेंट की बेंच पर
बैठी मिलूंगी
पहले खूब देर तक झगड़ा करेंगे

फिर छूकर देखना मुझे
रोम-रोम 
तुम्हारी प्रतीक्षा में 
आज भी स्टेशन में
बैठा है --

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अगस्त 04, 2022

प्रेम को नमी से बचाने

प्रेम को नमी से बचाने
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धुओं के छल्लों को छोड़ता
मुट्ठी में आकाश पकड़े
छाती में 
जीने का अंदाज बांधें
चलता रहा 
अनजान रास्तों पर 

रास्ते में
प्रेम के कराहने की 
आवाज़ सुनी 
रुका 
दरवाजा खटखटाया 
प्रेम का गीत बाँचा
जब तक बाँचा 
जब तक 
प्रेम उठकर खड़ा नहीं हुआ 

गले लगाया 
थपथपाया
और उसे संग लेकर चल पड़ा
शहर की संकरी गलियों में

दोनों की देह में जमें
प्रेम को
बरसती गरजती बरसात
बहा कर 
सड़क पर न ले आये
तो खोल ली छतरी
खींचकर पकड़ ली 
उसकी बाहं
और निकल पड़े 
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में 
नहीं लगे फफूंद---  

◆ज्योति खरे