प्रेम को नमी से बचाने
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धुओं के छल्लों को छोड़ता
मुट्ठी में आकाश पकड़े
छाती में
जीने का अंदाज बांधें
चलता रहा
अनजान रास्तों पर
रास्ते में
प्रेम के कराहने की
आवाज़ सुनी
रुका
दरवाजा खटखटाया
प्रेम का गीत बाँचा
जब तक बाँचा
जब तक
प्रेम उठकर खड़ा नहीं हुआ
गले लगाया
थपथपाया
और उसे संग लेकर चल पड़ा
शहर की संकरी गलियों में
दोनों की देह में जमें
प्रेम को
बरसती गरजती बरसात
बहा कर
सड़क पर न ले आये
तो खोल ली छतरी
खींचकर पकड़ ली
उसकी बाहं
और निकल पड़े
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में
नहीं लगे फफूंद---
◆ज्योति खरे
15 टिप्पणियां:
लाजवाब
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ अगस्त २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 5 अगस्त 2022 को 'युद्द की आशंकाओं में फिर घिर गई है दुनिया' (चर्चा अंक 4512) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
अप्रतिम भावों को संजोए लाजवाब सृजन ।
निकल पड़े
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में
नहीं लगे फफूंद---
..सुंदर भावप्रवण रचना ।
और निकल पड़े
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में
नहीं लगे फफूंद---
वाह! गहरे भाव समेटे लाजवाब सृजन आदरणीय सर 🙏
लाजवाब । बहुत सुंदर भाव
वाह!!!
प्रेम को नमी से बचाने...
लाजवाब सृजन।
अँचार हो या रिश्ते...बिना केयर के फफूँद लगनी स्वाभाविक है...👍
लाजवाब लेखन सर
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
सुन्दर अभिव्यक्ति
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